निज श्वासों से पृथक न समझी,
तुरंगम चक्र सम रही अनसुलझी।
तुझमें ही उलझा सृजन मेरा,
तुझमें निहित जीवन मेरा।
ढूँढ रही जाने क्या घट घट,
स्वाति बूँद को सीप सी मैं।
सत्य को करके अनदेखा,
हृदय से सदा मैंने तुझको देखा।
पग पग पर बिछाया परागकण,
आँचल में ढक प्राण उन्मन,
विरह बलिवेदी पर चढ़ी,
निर्जन-कानन की द्वीप सी मैं।
डॉ. रीमा सिन्हा (लखनऊ )