उम्र सिर्फ घटता है

मैं किसी और को

क्या बता रहा हूं,

हक़ीक़त तो ये है कि

मैं खुद को ही भूलते जा रहा हूं,

मैं कौन हूं,

क्या है मेरा वजूद?

उत्तर की प्रत्यासा में

खुद को खोज रहा हूं खुद,

कह नहीं सकता

कब विलुप्त हो जाऊं,

किसको कैसे,

अपना परिचय बताऊं,

कुदरत के मानिंद

जी चुका हूं बहुत ज्यादा,

बन गया हूं मैं

चुका हुआ प्यादा,

कदर खो चुका

अपनों के बीच जो,

कौन कहे उसको

चल अंकुरण का बीज बो,

घिर रहा है जो

चक्रव्यूह के जाल में,

समा सकता है वो

शसक्त मौत की गाल में,

जो खुद खो चुका

अपनों के बीच साख,

बचने की उम्मीद अब

होने लगी है खाक,

नफरतों का मंजर

लगा रहा है आग,

कौन जाने कब

बुझ जाये कोई चराग,

न कर सका उजाला

इस बात का है गम,

अंदर से तोड़ डाला है

हर हसीं सितम,

जो बोया वहीं कटता है,

उम्र कभी बढ़ता नहीं

सिर्फ और सिर्फ घटता है।

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ छग