वो पहला दिन मोहब्बत का जैसे घास पर हो ओस की बूँदें
जिस पर रख रही थी मै अपने पाँव को हौले हौले
था मन मेरा बंजर सा उस पर बरस गई बरखा कोई
और अंकुरित हो उठा वर्षो से दफन मोहब्बत का बीज़ कोई
जब तेरी नज़रें मेरी नज़रों से मिली थी पहली दफा
झुक गई थी शर्म से पलके मेरी और था मन बेचैन प्रेम सागर सा भरा
आवाज़ तुम्हारी सुनते ही कर्ण बजे मधुर शंखनाद
रोम रोम खिल जाता मेरा, अंतर्मन करता प्रेम श्रृंगार
सुबह तुम्हारा छत पर आना जैसे किरण पड़ी सुमन पर हो
मुस्कुरा कर मेरा मुड़ जाना जैसे कोई फूल सूरजमुखी सा हो
वो पहला दिन मोहब्बत का था एक लम्हा इबादत का
नज़र भर तुझे देखने की चाह वजह बना फिर आदत का..।।
स्वरचित् और मौलिक
सरिता श्रीवास्तव 'सृजन'