देख सकते हैं आप कभी
हजारीबाग से रामगढ़ जाते हुए
सुबह सुबह साइकिलों की
लंबी कतारें
चीटियों की तरह पंक्तियों में जाते
सब पर लदी होती हैं
छोटी बड़ी बोरे-बोरियों में
केवल और केवल कोयले।
साइकिल चालक पकड़े उसका हैंडल
चले जाते हैं अपने धुन में
पैदल पैदल सड़क के किनारे किनारे
पसीने पोंछने का शऊर तक नहीं
चिंता है कोयला बेच कर
घर के राशन खरीदने की।
गले में लटका गमछा
कभी कभी बदल बदल
कर हाथ के आये
पसीने की पानी पोंछने का काम आता है
ताकि हैंडल हाथ से फिसल ना सके।
अचानक से रूकती है एक बस
और औने पौने दाम में खरीद कर
बोरी में भरे कोयले को
लोग लाद लेते हैं उसे बसों में
चल पड़ती बस
और लोग करते हैं आपस में बातें
कि कौन सा लाते है ये लोग
यह कोयला अपने घर से
इनका नहीं है कोई मेहनत
करते हैं ये चोरी।
टाटा या सीसीएल के
छाड़न खदानों में घुस कर
निकलाते है ये लोग कोयला
और साइकिल पर लाद कर
बेचने आते हैं शहर में।
सवाल है इन खरीददारों को
नहीं दिखता
कॉरपोरेट घराने की लूट
नहीं दिखता
वहां से संसाधनों का दोहन
नदी के पानी की चोरी और प्रदूषण
जंगलों का संकुचन
जमीन की दिन दहाड़े चोरी
आदिवासियों का शोषण
उनकी भाषा और संस्कृति की मौत।
जानपर खेल कर
दो वक्त की रोटी के लिए
कई कई किलोमीटर बिना थके
जांगर हिलाते लोगों के प्रति
कितनी बची है ऐसे
खरीददारों की संवेदना?
नफरत से भरे ये लोग खुश होते हैं
दस रुपये कम देकर
खरीदे कोयले से।
डॉ. संतोष पटेल
नई दिल्ली