तुम्हारे आँचल का बंधन

कल मैंने किसी अपने को देखा,

माँ, मैंने तुम्हें सपने में देखा।

यूँ तो दूर इतनी कि कभी मिल भी न पाऊँ मैं,

पर सबसे करीब तुम ही हो ये किसे बतालाऊँ मैं?

छलकते हैं जब आज भी आँसू,

तुम्हारे ही आँचल की आस रहती है,

मेरी पीड़ा को समझने तू ही पास रहती है।

माँ, तुम कितनी अलग थी मुझसे,

कितनी सहनशील और जुदा सबसे।

भावों की अभिव्यक्ति में मैं आज भी कच्ची हूँ,

माँ,सिर्फ तुम ही समझती थी मुझको

कि शब्दों से परे मैं इक बच्ची हूँ।

माँ,शब्दों को सुलझाकर अब थक चुकी हूँ,

इस दुनियां को समझने में स्वयं ही उलझ चुकी हूँ,

मुझे सिर्फ अब तुम्हारा स्नेहिल आलिंगन चाहिए,

माँ, मुझे तुम्हारे आँचल का बंधन चाहिए।

डॉ. रीमा सिन्हा