मटके का झटका

यहाँ एक इंद्र पानी बरसाता है तो दूसरा इंद्र उसी पानी के लिए मारा जाता है। सब मटके का खेल है। कोई इसके लिए सुमेल तो कोई बेमेल है। मटका मिट्टी से बनता है। मरने के बाद सभी इसी में मिल जाते हैं, लेकिन जीते जी मटके की मिट्टी सभी के भाग्य में नहीं आती। मटके में पानी हो न हो जात-पात, ऊँच-नीच सदा रहता है। कोई उसमें से अपने मतलब का पानी निकालकर पी लेता है तो कोई उसी में राख बनकर समा जाता है।

मटके को देखकर पिण्डलियाँ काँपती हैं। जिस्म लरजता है। एक बार के लिए इंसान बिजली का हाई टेंशन वाला तार छूकर बच सकता है, लेकिन मटके को छूकर कतई नहीं।  मटके के भीतर हमेशा खतरा भरा रहता है। इसे छूने के लिए औकात चाहिए होती है, जो सिर्फ इंसान के रूप में जन्म लेने भर से नहीं मिलती। यहाँ कुछ इंसान पानी के बदले बेइज्जती पीते हैं। ऐसा करने वाले पानी पीकर मरने वालों से चार दिन ज्यादा जीते हैं।     

हाय यह मटका भी बड़ी गजब चीज है। यह प्यास मिटाने के सिवाय सब कुछ कर लेता है। बच्चों को लोरी की जगह मर्सिया गाकर सुनाता है। पेड़ से बंधे बच्चों के झूलों को सूना कर देता है। बाज़ की तरह मासूमों के बदन को नोच लेता है। यह खिलौनों को खून में सानकर देता है। बच्चों की तरह दिखने वाली कलियाँ एक झटके में तोड़ देता है।

न जाने क्यों जब भी पानी पीने के लिये मटके को हाथ लगाते हैं तब उसमें आबे-ज़म-ज़म नहीं मासूम का लहू होता है! अब मटका पहले की तरह प्यास नहीं बुझाता। वह तो ऊँच को नीच से लड़ाने में व्यस्त रहता है। उसमें पानी की ठंडक की बजाय खून की गर्मी बसी रहती है। मासूम प्यास की इबारत मौत के कागज पर लिख रहे हैं।

मटके को आज भी प्यासे का इंतजार है। और प्यासा है कि गली-चौराहों-सड़कों और स्कूलों में खुले आम मारा जा रहा है। यहाँ संविधान किताबों में बंद है और गुंडागर्दी खुलेआम घूमती दिखाई देती है। यहाँ नेताओं के फोटों दीवार पर लटकते हुए हाथी के दाँतों की याद दिलाते हैं, जबकि पानी बहुतों की पहुँच से दूर खुद पानी-पानी हो रहा है। 

मटके का दायित्व सबकी प्यास बुझाना है, जबकि यह तो ‘पानी पिला रहा है’। मटके का मुँह तो जरूर होता है लेकिन जातिवाद, छुआछूत, सामाजिक भेदभाव, रूढ़िवादिता, अंधविश्वास जैसे भेदभाव से भरे कुंठित संकीर्ण समाज व्यवस्था, विकृत मनोवृति वाले लोगो को देखकर चुप रह जाता है। 

ऐसे मटकों को चाहिए कि वे पानी रखने के बजाए अपने बदन पर बेल-बूटे की डिजाइन बनवा लें और बैठ जाएँ अपने मनमाने कोठे में। तब उन्हें प्यास के नाम पर किसी को मारने-पीटने या फिर पिटवाने की जरूरत नहीं पडेगी। मटका जानता है कि वह किसी की जान नहीं बचा सकता, कम से कम गमला तो बन ही सकता है। इसी बहाने अपने में चार फूल खिलाकर प्यास बुझाने के चक्कर से बच सकता है।   

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657