मैं..

अक्सर मैं भी दुःखी हो जाती हूँ,

जब किसी दूसरी औरत को ,

देखकर तुम्हारी आंँखें विस्तृत

हो जाया करतीं हैं तब।

या फिर मेरी पीठ पर गढ़तीं हैं,

निगाह रास्ते चलते पीछे से।

अपने आपको पाती हूँ परितंत्र,

कभी बातों से,कभी व्यवघातों से,

कभी लातों से।

तुम को समर्पित कर दी है,

देह और रोम रोम पर...।

तुम्हारे हृदय में अपने लिए बना

पायी हूं कुछ खुद के लिए...।

या यूं ही बसर कर रहीं हूं जिन्दगी

तुम्हारे साथ,बीत जाने के लिए...।

उपजा रही हूँ,तुम्हारे विस्तृत वंश को

मेरे ही खून के कण कण से ...।

कितना कठिन है दूसरे की पेंटिंग

पर अपना नाम लिखना...।

मेरे ही सजृन पर तुम्हारा नाम

कुछ अजीब सा नहीं लगता है...।

कोमल संवेदनाओं पर कितना कठोर,

व्यवघात टूटते तारे सा उल्कापात...।

पूज्यनीय प्रतिमा सी,सुन्दर सकल,

खंडित र्मूति सी मैं र्निमाल्य में पडी रही।

लेखक :यू.एस.बरी,,

लश्कर,ग्वालियर,मध्यप्रदेश