स्वामी विवेकानंद और भारतीय राष्ट्रवाद

आधुनिक युग में आध्यात्म को राजनीति से जोड़ने का श्रेय निश्चित रूप से स्वामी विवेकानंद जी को जाता है।जब समूचा देश गुलामी की बेड़ियों में जकड़कर अज्ञानता के अंधकार में छटपटा रहा था, स्वामी जी अपने गुरु की सच्ची आवाज बनकर ज्ञान की जोत जलाते फिर रहे थे। स्वामी जी यानि नरेंद्रनाथ दत्त कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रतिभावान स्नातक थे। जाँन स्टुअर्ट मिल,स्पेन्सर और रूसो जैसे पाश्चात्य दार्शनिकों का उनपर प्रभाव था।जिज्ञासावश ब्रह्मसमाज से जुड़े पर बिना उचित व्याख्या के प्राच्य दर्शन को हीन समझना उन्हें उचित नहीं लगा। अतः जल्दी हीं वहां से मोहभंग हो गया।

1881 में रामकृष्ण परमहंस से मिलने के बाद उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आता है। पश्चिमी विचारों का साम्राज्य पीछे छूट जाता है। हिन्दुत्व को उसके उदात्त स्वरुप का सबसे महत्वपूर्ण चिंतक मिलता है-स्वामी विवेकानंद। जो महज एक चिंतक न हो कर सक्रिय कार्यकर्ता या राष्ट्र निर्माता भी थे।

स्वामी जी के विचारों के सूक्ष्म विवेचन पर हम वहां तीन आकांक्षाओं को बलवती होते देखते हैं-

१.हिंदू आस्था  का पुनरुत्थान

२.सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

३. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

३९ वर्ष की अल्पायु में हीं उन्हों ने अपने उद्देश्यों में से काफी कुछ हासिल कर लिया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गरम दल के अधिकांश नेता स्वामी जी के विचारों से प्रभावित थे। 

1887 में गुरु जी की स्मृति में रामकृष्ण मठ की स्थापना के बाद वो विवेकानंद कहलाने लगे। संपूर्ण भारतवर्ष का भ्रमण प्रारंभ हुआ। 1893 में शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन में स्वामी जी ने हिन्दुत्व पर ऐतिहासिक व्याख्यान दिया। समुद्र यात्रा के मिथक को भी उन्होंने यहां धराशायी किया। इस प्रकार पुनरुत्थान के साथ-साथ अंधविश्वासों का भी परम विरोध स्वामी जी में दिखता है। भारत के शिक्षित वर्ग को उन्होंने अपनी सभ्यता और संस्कृति पर गर्व करने का अवसर प्रदान किया। समूचा विश्व उन के विचारों पर मंत्रमुग्ध हो गया। कई देशों के भ्रमण के पश्चात 1897 में स्वामी जी भारत लौटते हैं। फिर 5 मई 1897 को "रामकृष्ण मिशन" की नींव पड़ती है। 1899 में बेलूर मठ स्थापित होता है। 1897 के मुर्शिदाबाद अकाल के समय संगठन का राहत एवं पुनर्वास के कार्यों में योगदान अविस्मरणीय रहा। मिशनरियों की तर्ज पर चिकित्सालय, अनाथालय,और विधवा आश्रम खोले गए। यह सब कुछ धर्म परिवर्तन के दुश्चक्र को रोकने में सफल रहा। राष्ट्रकवि दिनकर जी लिखते हैं-

"हिन्दुत्व को जीतने के लिए अंग्रेजी भाषा, ईसाई धर्म और यूरोपीय बुद्धिवाद के पेट से जो तूफान उठा था,वह विवेकानंद के हिमालय जैसे विशाल वृक्ष से टकराकर लौट गया।"

स्वामी जी ने हिन्दू अध्यात्मवाद के महत्व को पुनर्स्थापित किया। पश्चिमी जगत के लोग उन्हें 'तूफानी भ्रमण करने वाले साधु"( Cyclonic Monk of India) कहते थे। वे धर्म को मनुष्य के अंदर स्थित देव तत्व मानते थे। मनुष्य इस देव तत्व को आत्मज्ञान के साधन से प्राप्त कर सकता है। 

सभी धर्मों की पारस्परिक एकता में स्वामी जी का अटूट विश्वास था। धार्मिक पूर्वाग्रह उन्हें छू तक नहीं गया था। वे हमेशा धार्मिक उदारता,समानता और सहयोग की बात करते थे। स्वामी जी के अनुसार-

" आत्मा की भाषा एक है, जबकि राष्ट्रों की भाषाएं विभिन्न हैं , उनके रिवाज और जीवन जीने के तरीके पूर्णतया अलग-अलग हैं। धर्म आत्मा से संबंधित है, लेकिन वह विभिन्न राष्ट्रों , विभिन्न भाषाओं और विभिन्न रिवाजों के माध्यम से प्रकट होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि संसार के सभी धर्मों में मूल आधार एकता है, यद्यपि उसके स्वरुप विभिन्न है। "

मानव सेवा को स्वामी जी धर्म का ही एक अंग मानते थे।

इसलिए उनके उपदेशों में मानव मात्र की सेवा का सार निहित रहता था। स्त्री शिक्षा के वे प्रबल समर्थक थे। रुढिवादिता पर उनका कठोर प्रहार होता था। वे कहते थे-

"ईश्वर तुम्हारे सामने यहीं पर विभिन्न रुपों में है। जो ईश्वर के बच्चों को प्यार करता है,वह ईश्वर की सेवा करता है।... निर्बलों और असहायों को अपना ईश्वर बनाओ,इनकी सेवा करना हीं महानतम धर्म है।"

वे मनुष्य को पहले मनुष्य होने की सलाह देते थे। मनुष्यता को हीं समाज की संपूर्ण प्रगति का आधार मानते थे। 

            स्वामी जी ने भारतीय लोगों को बताया कि हमारी प्राचीन संस्कृति पश्चिम की उपभोक्तावादी संस्कृति से कहीं अधिक महान है। भारतीय जनता में उन्होंने जो आत्मविश्वास और आत्मगौरव का भाव उत्पन्न किया,उसी में स्वदेश प्रेम के बीज निहित थे। समाज के कर्णधारों ने स्वामी जी से प्रेरणा ग्रहण की। इतिहासकारों और पुरातात्विदों ने प्राचीन भारत का स्वर्णिम इतिहास खोज निकाला। दार्शनिकों ने वैदिक और औपनिषदिक दर्शन को शीर्ष पर स्थापित किया। टाटा-, बिड़ला जैसे उद्यमी स्वदेशी उत्पादन को प्रेरित करने लगे। साहित्यकारों ने मां भारती के पुत्रों में देश प्रेम का अलख जगाया। ठीक उसी समय भारतीय राजनेता भारतीय राष्ट्रवाद का झंडा लेकर उठ खड़े हुए। निस्संदेह भारतीय राष्ट्रवाद के उदय में स्वामी जी का योगदान निर्णायक रहा।

मधुकर वनमाली

मुजफ्फरपुर बिहार