बिना पूंछ का हाथी

 अब हम और ज्यादा दिन विकासशील देश का तमगा लगाए नहीं घूमेंगे। निकट भविष्य में शर्म से पानी-पानी होने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। अरे भाई! नहीं देखते हम किस तरह रॉकेट की गति से विकास के अंतरिक्ष में दौड़ लगा रहे हैं? या यूँ कहें कि विकास का हाथी देशभर में बिना पूंछ के घूम रहा है। किंतु हमारे विकास के हाथी को बिना पूंछ के घूमने में बड़ी तकलीफ हो रही है। विकास की पीठ पर मक्खी-मच्छर बैठेंगे तो उन्हें उड़ाने के लिए पूंछ तो होनी चाहिए न! अब हम आपको क्या बताएँ उसकी पूंछ को यहाँ की कुछ महिलाएँ देश में घूसने नहीं दे रही हैं। मैंने उन्हें लाख समझाया लेकिन वे हैं कि मानती नहीं। इतनी जिद भी ठीक नहीं। जब सवाल देश के विकास का हो तो समझौता कर लेना चाहिए। इन सब मामलों में पाश्चात्य देश की महिलाएँ अडवांस हैं।   

किसी ने यहाँ की महिलाओं को लाख समझाया कि जिस पल्लू को  आप आन-बान-शान समझती हैं वह विकास के रास्ते में रोड़ा बन रहा है। मैं आपके हाथ जोड़ता हूँ, पैर पड़ता हूँ कृपया उसे छोड़ दें। वे पलटकर कहने लगीं, उसे छोड़ देंगे तो चूल्हे से गरम बर्तन कैसे उतारेंगे? बच्चों का पसीना, आँसू कैसे पोछेंगे? गंदे कान, चेहरे की सफाई कैसे करेंगे? हम अपना हाथ कैसे पोछेंगे? बच्चों की आँख में दर्द होने पर उसकी सफाई कैसे करेंगे? फूँक कैसे मारेंगे? बच्चों के लिए गोदी का गद्दा कैसे बनायेंगे? चदरिया कैसे बनायेंगे? वे कहाँ छिपेंगे? किससे खेलेंगे? कैसे चलेंगे? बारीश, ठंडी और गर्मी से कैसे बचेंगे? उनके खाने के लिए आम, अमरूद किसमें रखेंगे?  धूल की सफाई कैसे करेंगे? रुपए-पैसे कहाँ रखेंगे? देश के सांस्कृतिक मान को बचाए रखने वाले पल्लू को तो रहने दीजिए।

देखिए बहन जी बात तो आपकी ठीक है, लेकिन आजकल की आबोहवा के बारे में भी तो सोचिए। इसे अपने पास रखेंगी तो कभी भी लुप्त हो सकता है। इसे संग्रहालय में रखवा देते हैं। वहाँ सुरक्षित पड़ा रहेगा। कम से कम अगली पीढ़ी को बताने के लिए कुछ तो बचा रहेगा। यह विकास डायन न जाने कितनी चीज़ों को लील गयी। इसकी भी कोई बिसात है? महिलाओं ने कहा, इसी की बिसात है इसीलिए भारत है। इसके जाने से देश का विकास जो होगा सो होगा, लेकिन वह देश भारत नहीं कुछ और होगा। जिसे आप इतनी देर से यह, वह, इसे, उसे, कहकर संबोधित कर रहे हैं, वह भारत माँ का पल्लू  है। जिस दिन यह पल्लू चेहरे से हट जाएगा उस दिन देश में इंसान तो रहेंगे लेकिन उनमें इंसानियत कतई नहीं रहेगी। संस्कृति की समाधि पर विकास का भवन बन सकता है, टिक नहीं सकता।      

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, चरवाणीः 7386578657