इंतज़ार करते-करते
कब में आंख लग गई,,पता ही न चला ,
आंखें खुली तो रोशनी थोड़ी कम महसूस हुई
भीतर की भी,,बाहर की भी ,
अब चश्मा लगाए रखती हूं हर वक़्त
ताकि सब कुछ सही दिखता रहे !!
पर, भीतर का क्या,,
अंधेरों को उलीचते-उलीचते
तुम्हारा होना भर महसूस कर पाती हूं ,
आकृतियां बनते-बनते रह जाती हैं हर बार ,
हवाओं में घुल से जाते हैं सभी द्रश्य
देखने से ठीक पहले ही ,
फिर, कैसे कुछ देखूं ?
तब, चुनती हूं उनका रेशा-रेशा
और लिखती रहती हूं,,सुनती रहती हूं
तुमसे की गई सारी अनकही बातें ,
ये सुख है, या कि दुख..नहीं पता ,
और बीतती रहती हूं संग उनके उतना ही !!
आखिर कब तक बात करूं
खुद की ओर लौटती हुई
इन चुप-चुप सी आवाज़ों से ,
क्या तुम्हारे पास है कोई जवाब,, नहीं न !!
नमिता गुप्ता "मनसी"
मेरठ, उत्तर प्रदेश