लीडर लकीरों के

     वे जरूर फकीर लगते हैं सिर्फ चेहरे से,अपनी लकीर के बड़े पक्के, अपनी लकीर के प्रति पूर्णतया प्रतिबद्ध और अधिक संवेदनशील। यह अलग बात है कि उन्हें अपनी लकीर पीटते अजी वही लीक पीटते हमेशा देखा जा सकता है। अपनी लकीर के आगे किसी की भी लकीर बड़ी हो, उन्हें बर्दाश्त नहीं। अपनी दो गज तक खींची गई लकीर के लिए वे सारे विरोधियों से, सारे आलोचकों से लगातार लड़ते भिड़ते रहते हैं। इतिहास के महापुरुषों, महान आत्माओं की लकीरों को भी छोटी करने का निरंतर प्रयास करते रहते हैं।

      लकीरों की एक तकनीक है। लकीरों के बड़े और छोटे होने की पीछे भी काफी बड़ा तर्क है, प्रमाण है। आप अपनी लकीर दो तरीकों से बड़ा साबित कर सकते हैं। पहली विधि है - खूब मेहनत कर, बड़े-बड़े काम कर, नए-नए परिणाम हासिल कर लोगों में अपनी साख अपनी प्रतिभा सिद्ध करते रहें तो लकीर बड़ी होगी। 

लेकिन हां! यह बेहद मेहनत-मशक्कत का काम है। बिना कुछ ऊल जलूल किए सदा परिश्रम से नाता रखते हुए, हमें दिन-रात सुपरिणामों के लिए जूझना और मेहनत करना होता है। इस तरह लकीर की लंबाई बढ़ाने वाले अब इतिहास में दफन हो गए, उदाहरण बनकर हमारे मस्तिष्क में समा गए हैं। है तो यह सही तरीका लकीर बढ़ाने का, पर आजकल के जनमानस के बीच लोकप्रिय नहीं है।   

          दूसरा तरीका है जिस किसी से भी आपको अपनी लकीर बड़ी साबित करनी है उस की लकीर मिटाते रहें, उसके गुणों को अवगुण सिद्ध करते रहें, साबित करते रहें। लगातार कोई झूठी बात बोली जाए तो कुछ लोग उस पर सच की तरह विश्वास करने लगते हैं।  

इस तरह किसी किसी की लकीर मिटाते हुए अपनी छोटी लकीर को बड़ा बताना आजकल का अपनाया हुआ आसान तरीका है। "हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा ही चोखा"।  मेहनत नहीं करनी पड़ी, बस अपने "बक्तव्य" को आधार बनाकर हासिल किया जा रहा है। आपको बातें करनी है भले ही उसमें सच्चाई कुछ भी न हो। हां इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश करना होता है।

      उनकी अपनी लकीर के अलावा वे दो विभिन्न वर्गों के बीच भी लकीर खींच कर, उन्हें  अलग कर सकते हैं। अपने इस विघटनकारी लकीर से ही उन्हें प्रसिद्धि मिली है, शोहरत मिली है - ऐसा उनका वहम है, गलतफहमी है। भाई भाई में, गुटबाजों में भी घुस कर अपनी शैली से लकीर खींच कर अपनी 'लकीर' बढ़ाने का अथक प्रयास करते रहते हैं।

      किसी ने उनसे पूछ लिया – “आप अपनी लकीर को बड़ी शिद्दत से बचाने में, दूसरों की लकीर मिटाने में और खेमों के बीच लकीर बाजी के लिए नामचीन शख्स हो गए हैं। क्या आपको यह सही लगता है? यह अलगाववाद को बढ़ावा देना नहीं हुआ?”

       वे अपने चौड़े सीने पर हाथ फिराते हुए बोले – “लकीरों से बांटने की घटनाओं से तो हमारा इतिहास भरा पड़ा है।  सन सैंतालीस  में आजादी मिली ही इस शर्त पर कि भारत के दो टुकड़ों के बीच लकीर खींच कर इन्हें अलग किया जाए। भाई भाई में अलगाव तो  उसी वक़्त से अमल में आया है। उसके बाद हमने राज्यों की सीमाओं को लकीरों से अलग कर लिया है। 

इसी तरह राजनीतिक दलों के बीच दीवारों सी लकीरें खिंची हुई हैं। यह अलग बात है कि मेंढकों के कूद फांद की तरह इधर से उधर लोग फुदकते रहते हैं। खेत-खलिहान, घर-बार, दफ्तर, सरकारी भवन सारे लकीरों से ही अलग अस्तित्व रखते हैं। लकीरों की बात यही नहीं थम जाती है।  जिसको जो भी मिलना होता है उसे उसके माथे पर लकीर खींच कर भगवान भेजते हैं। जो कुछ नहीं कर पाते बस पानी पर लकीर खींचते रहते हैं। जो कुछ भी हमने कहा - इस बात को पत्थर की लकीर मान लो।”    

        एक बार इस बदलती लकीर पर पूछा गया तो वे बोले – “जब दिन, महीने, साल बदलते हैं, जब मौसम बदलते हैं, जब कुदरत बदलती है – ऐसे में मेरे लकीर के बदलने से एतराज क्यों? समय अनुसार लकीर और संदर्भ अनुसार मुख की तस्वीर बदलना आज के समय की मांग है” - कहकर वे अपनी तर्जनी से हवा में लकीरें खींचने लगे।

डॉ0 टी0 महादेव राव

विशाखापटनम (आंध्र प्रदेश)

9394290204