साड़ी की व्यथा

आज जैसे ही मैंने खोली अलमारी किसी के सिसकने की आवाज़ आई, 

कुछ देर ठहर कर सुनती रही पर बात मुझको समझ न आई, 

फिर मैंने उठाया एक वन पीस ड्रेस और दरवाजा बन्द करने लगी

तभी अचानक तेज स्वर में वो जोर से रोने लगी

झट से मैंने दरवाजा खोला

थोड़ा झुक कर मैंने बोला

अरे कौन रो रही ये बताओ

बात क्या है जरा सामने तो आओ, 

तभी दर्द भरी आवाज़ मे एक साडी मुझसे बोल पड़ी, 

देखो न नीचे दबी हूँ मुझे भी बाहर निकालो कभी, 

पड़े पड़े मैं अलमारी में ऐसे ही मर जाऊंगी

फंगस लग गया है मुझको मैं इसी मे सड़ जाऊंगी, 

त्वचा मेरी सिकुड़ने लगी नसे भी अब दबने लगी है

जाने तुम क्यो रूठ गई हो

या फिर मुझको भूल गई हो

माना तुम हो गई हो मार्डन 

हर रोज शॉपिंग किटी  पार्टी करती हो, 

घुटने तक पहनने लगी हो कपड़े क्यो संस्कार अपने भूल गई हो, 

याद करो वो पहला दिन जब तुम दुल्हन बनकर आई थी, 

लपेट रखा था मुझे बदन पर थोड़ी सी घबराई थी, 

तुम इतनी प्यारी लग रही थी मानो कोई कली गुलाब की, 

चाँद सा चेहरा छिपा था घूँघट मे,उठते ही घूँघट चांदनी सी बिखर गई थी, 

बहुत कुछ देखा मैंने तुम्हारे संग, जीवन के नये पुराने ढंग

मुझे पहन कर एक बार तुम चलो  मंदिर ही घूम आओ

मांग सजा लो पिया के नाम की भारतीय नारी बन जाओ

साड़ी की ये बात सुनकर मेरी आंखें भर आई थी

झट से फेका  मैंने वन पीस ड्रेस फिर साड़ी को गले लगाई थी..।। 


स्वरचित् और मौलिक

सरिता श्रीवास्तव 'सृजन'

अनूपपुर मध्यप्रदेश