धरा पर पाप ना छूटे

सोचता हूँ कवि बनू

कविता लिखू

कबि कर्म की रक्षा करू,

पर अकेले अन्धकार मे खड़ा

कब तक प्रकाश की प्रतीक्षा करू।

हे प्रभु मेरा धनुष ना रूठे

धरा पर पाप ना छूटे,

नहीं तो लघु बृक्ष पूछेगे

दादा बरगद तू लड़ा क्यों नही 

अन्धकार से,

जब तक न मिट जाता 

मानव के संसार से।

युद्ध के लिए तो मै-

तन-मन-धन से तैयार था,

पर पार्थ की तरह मुझ पर भी 

संसय सवार था।

वार किस पर करू-

अपने ही वन्धु बान्धव और मित्रो पर,

या उनके भीतर पल रहे कुकृत्यो पर।

योद्धा तुम्हे लड़ना पड़ेगा,

युद्ध मे मरना पड़ेगा।

छोड़ देगे तो आगे निकल जायेगा,

आ रही मानवता को 

राह मे खा जायेगा।

होरी धनिया का 

रक्त लेकर जा रहा वह पातक है,

आओ मिलकर मार डाले 

यही सबका घातक है।

आज फिर से जा मिला-

अरिदल से मेरा सारथी,

खून से लथपथ विजय की आरती।

जीत की चुनर पहनकर,

आ रही माँ भारती।


डाॅ.पंकज शुक्ल 'प्राणेश' ,वरिष्ठ साहित्यकार 

एवं समीक्षक,एआरपी हिन्दी,भागलपुर,देवरिया 

उत्तर प्रदेश,चल दूरभाष- 9839789538