कहते कहते नहीं थकते

किसी शायर ने कहा है - कहने को बहुत कुछ था  अगर कहने पे आते,दुनिया की इनायत है कि हम कुछ नहीं कहते। यह तो पहले की बात रही। अब तो जैसे बोलने की हर आदमी में होड़ लगी हुई है, कोरोना जैसी बीमारी हो गई है। मोबाइल कंपनियां आपको अपने फोन पर ज्यादा से ज्यादा बोलते रहने के लिए उकसाती रहती हैं, ताकि आपके “बोलों”से उनका “धंधा” चलता रहे।  टीवी पर देखें तो शॉपिंग चैनल में दोनों प्रस्तोता इतनी तेजी से और फर्राटे से लगातार बोलते रहते हैं कि आप नासमझ से  देखते रह जाएंगे और पशोपेश में कुछ ना कुछ ऊलजलूल चीज़ें  खरीद जाएंगे।  

कहते हैं योगी, गुरु, संत, महात्मा बड़े ही मितभाषी यानी बहुत कम बोलने वाले और मौनी किस्म के ज्यादा होते हैं। तभी उनकी बातों का, उनके व्याख्यान का, उनके संदेशों का अनुकरण किया जाता है।“शोले” फिल्म की बहुत प्यारी और ढेर सारी बातें करने वाली बसंती जैसे तो आजकल हर कोई होता जा रहा है। अगर कहा जाए तो उससे भी आगे बढ़ रहा है। विशेषकर राजनीतिज्ञ, उनमें भी सत्ता में आसीन,उनके द्वारा समर्थित और उनके समर्थक सारे तोतों की तरह बोलते जा रहे हैं, वह भी बार बार लगातार।

 वार्तालाप, बातचीत, संवाद से परे यह सभी एक तरफा वक्ता बनते जा रहे हैं। वार्तालाप, बातचीत, संवाद में आप बोलेंगे तो सामने वाला अपनी प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ बोलेगा, कुछ पूछेगा, कुछ स्पष्टीकरण चाहेगा, लेकिन केवल वक्तव्य देने या वक्ता बने रहने से प्रतिक्रिया, प्रश्न, स्पष्टीकरण से बचा जा सकता है। खुद को तनाव से, मानसिक दबाव से,यानी की स्ट्रैस से बचाया जा सकता है, क्योंकि सामने वाला क्या कुछ पूछ सकता है और  उसका उत्तर आपके पास शायद न हो।  

होगा कैसे?अधजल गगरी हैं तो छलकेंगे ही। वे  मीठी-मीठी बोलने में विश्वास रखते हैं, भले ही उसमें ज्ञानशून्यता ही क्यों न हो। वे  गाली-गलौज भी चाशनी में डुबोकर देते हैं वैसे ही जैसे शहद में डूबा कर जूता मारा जाता है।  

कहने का अर्थ यह है कि सभी को अपनी आवाज में अर्धज्ञान का आख्यान और शेख़ी बघारना अच्छा लगता है।  उन्हें लगता है कि दुनिया में वही बुद्धिशाली हैं, ज्ञानी हैं और विद्वान हैं और तो और सर्व ज्ञान संपन्न विद्वान हैं। जब आख्यानों और व्याख्यानों पर छींटाकशी होने लगी, लोग  विपरीतार्थ निकाल कर उन्हें अज्ञानी सिद्ध कर देते हैं, तो यह कहते हैं कि “कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पर आते, दुनिया की इनायत है कि हम कुछ नहीं कहते।“ इन सब के बावजूद उनके हर अल्प ज्ञान उनके हर अल्प ज्ञान पर भक्तों की वक्तागिरी भी कम आकर्षणीय नहीं।  

इतना बचाव करते हैं जितना खूनी मुवक्किल को बचाने बचाव पक्ष का वकील भी नहीं करता होगा। भक्तों को उनके हर शब्द में एक अलग ही दुनिया, अलग ही अर्थ नजर आता है। अर्थ यह कि वे भी चुप नहीं रहते। ऐसे में ध्वनि प्रदूषण भी तो तेजी से बढ़ेगा ही।

  जिस तरह खरबूजा खरबूजे को देखकर रंग पकड़ता है उसी तरह  सभी वक्ता बने जा रहे हैं। विषय हो या न हो कोई बात नहीं, पर लगातार बोलना जरूरी है। श्रोताओं की कमी और वक्ताओं की अधिकता हुई जा रही है। मैंने अपने मित्र डॉक्टर से पूछा - “यह बोलने की बीमारी क्यों बढ़ती जा रही है? पहले तो ऐसा नहीं था। अब लगता है सभी बोलने के लिए ऐसे आतुर हैं, जैसे कल से उनकी बोलती बंद हो जाएगी या उनकी स्वर पेटिका  काम करना बंद कर देगी।” 

डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा –“कोरोना ने सभी को ज्ञानी और महान आख्यान देने वाले वक्ता के रूप में परिवर्तित कर दिया है। खाली दिमाग बोलों का कारखाना हो गया है। घर बैठे कभी व्हाट्सएप पर, कभी फिर किसी से बात करते हुए, तो किसी निरीह प्राणी पर अपनी वाचालता और वाकप्रवाह की  बाढ़ ला देते हैं। जिनके घर में गृहिणी है तो संयमित रहेंगे, नहीं है तो बस।”“कोई उपाय है। 

इस वाचालता का डॉक्टर?”“क्यों नहीं, सरकार खाने के तेल, पेट्रोल, डीजल की कीमतें अंधाधुंध बढ़ा रही है और अन्य चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं इसके बावजूद जीडीपी पचहत्तर  वर्ष में अल्पतम और ऋणात्मक अंक  पर आ गया है। इसलिए चाहिए कि बोलने पर, चाहे वह कोई भी हो,“वाक कर” का प्रावधान करे और सख्ती से उसका पालन करे तो दो फायदे होंगे - एक तो लोगों के कान बचेंगे और सरकार की भी आमदनी बढ़ेगी।”

डॉ0 टी0 महादेव राव 

वि‍शाखपटनम (आंध्र प्रदेश)