राम मंदिर: सियासी मंच या आस्था का उत्सव

राजनीति अपनी जगह है लेकिन राम मंदिर करोडों भारतीयों के लिए आस्था का विषय है। राजनीति कैसे साधारण विषयों को भी उलझाकर मुद्दे में तब्दील कर देती है, रामजन्मभूमि का विवाद इसका उदाहरण है। आज के भारत का मिजाज़, अयोध्या में स्पष्ट दिखता है। आज यहां प्रगति का उत्सव है, तो कुछ दिन बाद यहां परंपरा का उत्सव भी होगा। आज यहां विकास की भव्यता दिख रही है, तो कुछ दिनों बाद यहां विरासत की भव्यता और दिव्यता दिखने वाली है। अयोध्या में राममंदिर का निर्माण तथा भगवान रामलला की प्राण प्रतिष्ठा हमारी गौरवशाली आस्था के क्षण है और वर्तमान पीढ़ी बेहद भाग्यशाली है, जो इन ऐतिहासिक क्षणों की साक्षी बनने जा रही है। सोचे तो राममंदिर सबका है क्योंकि राम किसी के साथ भेदभाव नहीं करते है, राम सबके है। लेकिन यह बात बार-बार इसलिए दोहराई जा रही है ताकि राम मंदिर आंदोलन से लेकर निर्माण तक भाजपा को जो श्रेय मिल रहा है उसे कम किया जा सके। विपक्षी राजनितिक दलों के नेता राममंदिर को सियासी इसलिए बना रहे है ताकि महोत्सव में किसी न किसी प्रकार का विवाद खड़ा हो जाये। इन्हे सुनकर ये कहा जा सकता है कि सियासी लोग अभी तक राम मंदिर के निर्माण के राष्ट्रीय कार्य को मन से स्वीकार नहीं कर पाए है।

--प्रियंका सौरभ

अयोध्या में राम मंदिर अटूट आस्था का विषय है। एक ऐसी आस्था जिसे श्रद्धालु सदियों तक कायम रखते रहे, तब भी जब मंदिर खड़ा नहीं था। आज राम मंदिर का भव्य निर्माण हो रहा है। राम मंदिर का निर्माण एक अनथक संघर्ष का प्रतीक है। यह भारत के लोकतंत्र,  उसके न्यायिक-सामाजिक मूल्यों की स्थापना का समय भी है। यह सिर्फ मंदिर नहीं है जन्मभूमि है, हमें इसे कभी नहीं भूलना चाहिए। लोकजीवन में, साहित्य में, इतिहास में, भूगोल में, हमारी प्रदर्शनकलाओं में उनकी उपस्थिति बताती है राम किस तरह इस देश का जीवन हैं। राम का होना मर्यादाओं का होना है, रिश्तों का होना है, संवेदना का होना है, सामाजिक न्याय का होना है, करुणा का होना है।

 वे सही मायनों में भारतीयता के उच्चादर्शों को स्थापित करने वाले नायक हैं। लोकमन में व्याप्त इस नायक को सबने अपना आदर्श माना। राम सबके हैं। वे कबीर के भी हैं, रहीम के भी हैं, वे गांधी के भी हैं, लोहिया के भी हैं। राम का चरित्र सबको बांधता है। अनेक रामायण और रामचरित पर लिखे गए महाकाव्य इसके उदाहरण हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त स्वयं लिखते हैं- राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए, सहज संभाव्य है।

भगवान श्रीराम भारतीय संस्कृति के ऐसे वटवृक्ष हैं, जिनकी पावन छाया में मानव युग-युग तक जीवन की प्रेरणा और उपदेश लेता रहेगा। जब तक श्रीराम जन-जन के हृदय में जीवित हैं, तब तक भारतीय संस्कृति के मूल तत्व अजर-अमर रहेंगे। श्रीराम भारतीय जन-जीवन में धर्म भावना के प्रतीक हैं, श्रीराम धर्म के साक्षात् स्वरूप हैं, धर्म के किसी अंग को देखना है, तो राम का जीवन देखिये, आपको धर्म की असली पहचान हो जायेगी। आज के भारत का मिजाज़,  अयोध्या में स्पष्ट दिखता है।

 आज यहां प्रगति का उत्सव है, तो कुछ दिन बाद यहां परंपरा का उत्सव भी होगा। आज यहां विकास की भव्यता दिख रही है, तो कुछ दिनों बाद यहां विरासत की भव्यता और दिव्यता दिखने वाली है। अयोध्या में राममंदिर का निर्माण तथा भगवान रामलला की प्राण प्रतिष्ठा हमारी गौरवशाली आस्था के क्षण है और वर्तमान पीढ़ी बेहद भाग्यशाली है, जो इन ऐतिहासिक क्षणों की साक्षी बनने जा रही है। आज देखने में आ रहा है कि मंदिरों में दर्शन करने वालों की संख्या में आशातीत बढ़ोतरी हुई है। लोग मन कि शांति के लिए प्राणयाम, ध्यान धार्मिक अनुष्ठान और सेवा कार्यों में बढ़ चढ़कर भाग ले रहें है।

यह भारत का आध्यात्मिक जागरण और आस्था के प्रति समर्पण मनुष्य को नैतिकता की और ले जा रहा है। श्रीराम मंदिर निर्माण के साथ ही भारत में वैसा दृश्य निर्मित हो रहा है, जैसे रामराज्य आ रहा है। राजनीति अपनी जगह है लेकिन राम मंदिर करोड़ों भारतीयों के लिए आस्था का विषय है। राजनीति कैसे साधारण विषयों को भी उलझाकर मुद्दे में तब्दील कर देती है, रामजन्मभूमि का विवाद इसका उदाहरण है। आजादी मिलने के समय सोमनाथ मंदिर के साथ ही यह विषय हल हो जाता तो कितना अच्छा होता। आक्रमणकारियों द्वारा भारत के मंदिरों के साथ क्या किया गया, यह छिपा हुआ तथ्य नहीं है। 

अच्छा होता कि इस कार्य को सांझी समझ से हल कर लिया जाता। किंतु राजनीतिक आग्रहों ने ऐसा होने नहीं दिया। कई बार ज़िद्द कुछ देकर नहीं जाती, भरोसा, सद्भाव और भाईचारे पर ग्रहण जरुर लगा देती हैं। अतीत में राम मंदिर के नष्ट होने से लेकर राम जन्मभूमि भूमि को पुनः प्राप्त करने के आंदोलन तक राममंदिर पर सियासी मंच हावी रहा है। जैसे-जैसे मंदिर के प्रतिष्ठा समारोह की तारीख नजदीक आ रही है, राजनीतिक नेताओं को भेजे गए निमंत्रणों ने कबूतरों के बीच बिल्ली को खड़ा कर दिया है।

विपक्ष का गुट गंभीर राजनीतिक बंधन में फंस गया है। राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह पर विपक्षी दल सत्ताधारी पार्टी पर हमलावर है। विपक्षी दल कह रहे हैं कि सत्तासीन पार्टी लोकसभा चुनाव को देखते हुए समारोह का इस्तेमाल कर रही है। मंदिर का उद्घाटन चुनावी लाभ के लिए किया जा रहा है। सोचे तो  राममंदिर सबका है क्योंकि राम किसी के साथ भेदभाव नहीं करते है, राम सबके है। लेकिन यह बात बार-बार इसलिए दोहराई जा रही है ताकि राम मंदिर आंदोलन से लेकर निर्माण तक विशेष कार्य करने वाली पार्टी को जो श्रेय मिल रहा है उसे कम किया जा सके। 

विपक्षी राजनितिक दलों के नेता राममंदिर को सियासी इसलिए बना रहे है ताकि महोत्सव में किसी न किसी प्रकार का विवाद खड़ा हो जाये। इन्हे सुनकर ये कहा जा सकता है कि सियासी लोग अभी तक राम मंदिर के निर्माण के राष्ट्रीय कार्य को मन से स्वीकार नहीं कर पाए है। कहा तो ये भी जा रहा है कि राम मंदिर 2024 के सियासी 'दंगल' में अहम रोल निभाएगा.  लेकिन ये एक अलग विषय है इसे छोड़ दीजिये ये सोचकर कि आखिर रामजी किसका करेंगे बेड़ा पार? धर्म में आस्था सर्वोपरि होती है, इसका सियासत से क्या रिश्ता? वक्त बताएगा।

फिलहाल नव वर्ष में नई अयोध्या 21वीं सदी के सबसे बड़े सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक उत्कर्ष का गवाह बनने जा रही है। लाखों रामभक्तों और श्रद्धालुओं के मन की मुराद भी पूरी करने जा रही है, जो सैकड़ों वर्षों से रामलला को दिव्य-भव्य नए मंदिर में विराजने का इंतजार कर रहे हैं।  अयोध्या दिन-रात संवर रही है, सज रही है। यह अवसर न सिर्फ इस धार्मिक नगरी के लिए आध्यात्मिक दृष्टि से उत्कर्ष का होगा, बल्कि अवध की अर्थव्यवस्था का बड़ा आधार बन जाएगा।

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