हंसते खेलते खुशियां लुट चुका था
रोते बिलखते आंसू खो चुका था
याद करते-करते याद भी मिट चुका था
जग के साथ रहते हुए भी...,
स्वयं को अकेलापन महसूस हो रहा था ।
स्वयं को ढूंढते ढूंढते...,
स्वयं के भीतर खो गया था
आगे बढ़ते बढ़ते ही
रास्ते 'दो राहें...' हो चुका था ।
तब..., मुझे ज्ञात हुआ...,
स्वयं को पहचान चुका हूं...,
जब तक स्वयं को ना पहचानो तो
अपना गंतव्य भी नहीं पहचान सकते ।
वैसे तो..., मैं स्वयं अपना
गंतव्य नहीं ढूंढ पाया हूं ।
इस जगत के साथ बंधा बंधन
अभी खुला नहीं है...!
ये अकेलापन
अकेलेपन से घुला नहीं है...!
दोस्त को दोस्तों ने
अभी पहचाना नहीं है...!
सोचते सोचते सोचना छोड़ दिया हूं
क्योंकि..., मेरा सोच मेरा विचार
पुनः उसी जगत में मुझे भेज देगा
लेकिन...,
मुझे तो स्वयं के भीतर जाना है ।
एक भी शब्द मैं क्यों बोलूं...?
वही शब्द जो इस संसार से आया है
संसार से आया हुआ विचार
संसार में ही उड़ेलकर क्या मिलेगा ?
मुझे मुझे तो वह शब्द बोलना है
जो मेरे भीतर से निकला है...!
स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह मानस
नारायण गांव,
नई दिल्ली 110028
manoj22shah@gmail.com