अधिकारों की जरूरत भुला बैठे देश में राहुल की न्याय यात्रा

राहुल गांधी एक बार फिर से भारत को नाप रहे हैं। साल 2022 की 7 सितम्बर को कन्याकुमारी से प्रारम्भ कर पिछले वर्ष की 30 जनवरी, को श्रीनगर के ऐतिहासिक लाल चौक पर तिरंगा फहराते हुए उन्होंने पहली यात्रा को पूरा किया था। उनके पहले वाले मार्च से, जिसे भारत जोड़ो यात्रा कहा गया था और जो नफरत के बाजार में मोहब्बत की दूकान भी कही गई थी, इस बार की यात्रा ज्यादा लम्बी दूरी की है और उसके उद्देश्य जोड़ने से बढ़कर लोगों को न्याय दिलाने के हैं। 

पिछली बार वे 4 हजार किलोमीटर चले थे, अब यह दूरी 6700 किमी की रहेगी। अबकी यात्रा हाई ब्रीड है, यानी वे चलने के साथ अपने वाहन का भी इस्तेमाल करेंगे। पिछले वक्त दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़े थे, अब पूर्वोत्तर के हिंसाग्रस्त मणिपुर से निकलकर पश्चिमी छोर में अरब सागर के तट पर बसी देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई को 20 मार्च को छुएंगे।

 पहले राहुल हिन्द महासागर, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी के मिलन स्थल पर बसे कन्याकुमारी से निकले थे और उन्होंने अपनी यात्रा का समापन हिमालय की गोद में बसे कश्मीर में किया था, तो अब की वे पहाड़ों वाले पूर्वोत्तर भारत के एक प्रदेश से निकलकर अरब सागर के किनारे बसे महानगर में उसे समेटेंगे। फर्क केवल इतना ही नहीं है, बड़ा अंतर है तब की और अब की यात्रा की पार्श्वभूमि तथा उद्देश्यों में। 

पहले लोगों के मन में बसी घृणा को मिटाकर प्रेम का संदेश देना था, तो अब सामाजिक सौहार्द्र के आगे बढ़ते हुए न्याय की मांग करना है। दरअसल पिछली यात्रा के दौरान जो विमर्श बना, वह इस बात का निष्कर्ष था कि जनता को आर्थिक, राजनैतिक व सामाजिक न्याय चाहिये जो 10 वर्षीय मोदी काल में उनसे छीन लिया गया है। यह यात्रा शुरू होने के पहले ही कांग्रेस के मीडिया प्रमुख जयराम रमेश ने बताया था कि इसके जरिये तीन तरह के न्याय की मांग की जा रही है- पहला है राजनीतिक न्याय क्योंकि देश में राजनैतिक तानाशाही है, सामाजिक न्याय क्योंकि धु्रवीकरण किया गया है और तीसरे, आर्थिक न्याय। वह इसलिये कि अमीर और अमीर होता जा रहा है तथा गरीब अधिक गरीब। 

मणिपुर इसलिये इस यात्रा का श्रेष्ठ प्रस्थान बिन्दु हो सकता था क्योंकि वह राज्य पिछले करीब 8 महीनों से जो कुछ झेल रहा है, वह इन्हीं तीन तरीकों के अन्याय हैं। राज्य में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, और केन्द्र में भी। इसे भाजपा अक्सर डबल इंजिन की सरकार के रूप प्रस्तुत करती है। इस खूबसूरत राज्य में जैसी हिंसा हुई उसमें भाजपा की न तो राज्य सरकार ने राहत दी और न ही केन्द्र ने आहत लोगों के आंसू पोंछने की कोशिश की। यहां तक कि दोनों ही सरकारों ने यहां की वस्तुस्थिति पर पर्दा डालने का काम किया। मोदी के बारे में यह कहावत ही मशहूर हो गई कि श्वे मणिपुर का म भी मुंह से नहीं निकालते।

 नयी संसद भवन में जाने के पहले उन्हें इसलिये इस पर एक संक्षिप्त बयान देना पड़ा क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने उस वीडियो का हवाला देकर केन्द्र को चेता दिया था कि अगर सरकार कुछ नहीं करती तो न्यायालय को ही कुछ करना पड़ेगा। इस मामले की गूंज दुनिया भर में हुई और यहां तक कि मोदी जो कभी भी प्रेस के सामने नहीं जाते, उन्हें भी अमेरिका प्रवास के दौरान इससे सम्बन्धित सवाल पर अपना आधा-अधूरा सा जवाब देना पड़ा था। भाजपा ने जिस तरह से उस राज्य को उसके हाल पर छोड़ दिया है, वह बतलाता है कि प्रदेशवासियों को राजनैतिक न्याय की सख्त आवश्यकता है। 

वहां के मुख्यमंत्री तो कहते हैं कि राज्य में इतनी घटनाएं हुई हैं कि सब पर कार्रवाई करना मुश्किल है। सामाजिक न्याय इसलिये चाहिये क्योंकि वहां हिंसा में 175 से अधिक लोग मारे गये, 1100 से ज्यादा घायल हुए और हजारों की संख्या में लोग बेघर होकर शरणार्थियों के रूप में रह रहे हैं। ईसाई बन गये कुकी आदिवासियों पर कहर टूटा है जो बतलाता है कि उनकी धार्मिक आजादी को छीना गया है। सामाजिक धु्रवीकरण इसका कारण है। इस हिंसा से वहां विकास ठप पड़ा है और लोग आर्थिक बदहाली की ओर बढ़ चले हैं। गरीबी, बेरोजगारी के चलते आर्थिक न्याय वहां की बड़ी जरूरत है।

कमोवेश, देखें तो पूरे देश का यही हाल है। भारत आज इन तीनों ही तरह के अन्यायों को भाजपा के हाथों झेल रहा है। फिर, यह यात्रा ऐसे वक्त में निकली है जब एक हफ्ते बाद ही भाजपा व मोदी अपने दस साला कार्यकाल का सबसे बड़ा इवेंट आयोजित करने जा रहे हैं- राममंदिर का 22 जनवरी को उद्घाटन। सभी जानते हैं कि जिस जल्दबाजी में मोदी प्राण प्रतिष्ठा के नाम पर भव्य व खर्चीला कार्यक्रम कर रहे हैं उस तरीके से स्वयं हिन्दुओं के सबसे बड़े धर्मगुरुजन, यानी चारों शंकराचार्य भी नाराज हैं। 

साफ हो चुका है कि मोदी के लिये यह समारोह उनके चुनावी प्रचार का ही हिस्सा है। इसके साथ ही दोनों परिघटनाओं के बीच फर्क साफ हो गया है- भाजपा जो इन तमाम तरह के अन्यायों का स्रोत है, वह मंदिर के पक्ष में है। उसके लिये बहुसंख्यकों का धर्म ही सर्वोपरि है। उसके लिये आजादी का अर्थ है समाज के कुछ गिने-चुने लोगों के लिये स्वतंत्रता। जबकि कांग्रेस (संविधान के अनुसार) सबके धर्मों के सम्मान की बात करती है, सबके लिये स्वतंत्रता की बात करती है। यही राहुल की न्याय यात्रा का निष्कर्ष है। इसके पक्ष में देश के 27 अन्य गैर-भाजपायी दल हैं।

राहुल की न्याय यात्रा को लेकर यह साफ है कि देश को न्याय की जरूरत है परन्तु क्या भारत की जनता का एक बड़ा हिस्सा न्याय चाहता भी है? पिछले 10 वर्षों में मोदी सरकार, भाजपा एवं उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने देश को न्याय की आवश्यकता भी भुला दी है। यह दुखद है कि आज बेरोजगार को मानों रोजगार नहीं चाहिये क्योंकि वह इसकी मांग ही नहीं कर रहा है, बेघर को घर नहीं चाहिये क्योंकि वह इसकी बात ही नहीं करता, छात्र को शिक्षा ही नहीं चाहिये क्योंकि वह भी इसकी मांग करता नहीं दिखता। लोगों के लिये मानों मंदिर ही सारी समस्याओं का निराकरण है। 

राहुल के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यही है कि उन्हें देश को याद दिलाना है और उसे न्याय की आवश्यकता से अवगत कराना है। जिस प्रकार से मोदी ने लोगों को न्याय ही विस्मृत करा दिया है, उन परिस्थितियों में राहुल लोगों को बतला रहे हैं कि किसी भी नागरिक के लिये राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक न्याय कितने आवश्यक हैं। उनकी न्याय यात्रा दो संगठनों के बीच का ऐसा संघर्ष है जिसमें एक पक्ष (भाजपा) लोगों को प्रेरित कर रहा है कि उन्हें न्याय की जरूरत नहीं है। 

दूसरा पक्ष (कांग्रेस) कह रहा है कि ये तीनों तरह के न्याय मिले बिना न तो व्यक्तिगत विकास सम्भव है और न ही देश का। देखना यह होगा कि 3-4 माह के बाद जब लोकसभा के चुनाव होते हैं तो जनता किसे चुनती है- अधिकारों का विस्मरण कराने वाली भाजपा को या न्याय को याद दिलाने वाली कांग्रेस को। भारत का भविष्य इसी बात पर निर्भर करेगा कि उसे आजादी सभी के लिये चाहिये या थोड़े से लोगों के लिये।