काश मैं भी कुछ होता

गुजर रहे हालातों पर

मैं बिल्कुल नहीं रोता,

उम्मीद तो था कि मैं

कुछ न कुछ बन गया होता,

लेकिन फिलहाल मजदूर हूं,

अपनी स्थिति पर मजबूर हूं,

कुछ बनने की अभी भी तमन्ना है,

कोशिश जारी है कुछ न कुछ बनना है,

पर सोचता हूं क्या बनूं?

काश मैं शिक्षक बन सकता,

नौनिहालों का भविष्य जतन सकता,

क्या कर सकता हूं बच्चों को पाखंड से दूर,

वो न हो पाए मानसिक मजबूर,

पाखंड,अंधविश्वास को वो त्यागे,

विज्ञान जानने हरपल रहे आगे,

कभी मुसीबत से न भागे,

हल तलाश जगाए और जागे,

काश मैं कवि बन सकता?

धूर्ततापूर्ण लेखों को बदल सकता,

चमत्कारों का महिमामंडन नहीं करता,

मिथकों से कभी नहीं डरता,

तर्क से सबको सच्चाई बताता,

धूर्तों की मंशा सबको जताता,

लेख मेरा सीधा व सरल होता,

पाखंडियों के लिए गरल होता,

काश मैं न्यायदाता बन सकता,

न्याय पीड़ितों का समय जतन सकता,

सभी को मिलता संपूर्ण न्याय,

किसी के साथ न होता अन्याय,

गर न्याय में हो जाये ज्यादा देर,

तो वो बन जाता है सबके लिए अंधेर,

सबूतों से न होता कोई समझौता,

अपराधी सामने होता न दिखता मुखौटा,

सर से पांव तक खुद को देश हित में डुबोता,

काश मैं भी कुछ होता,

काश मैं भी कुछ होता।

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ छग

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