पीरा बढ़गे आज जी, रोवत हाथी मोर।
तड़पत हावै जीव हा, विनती हे कर जोर।।
विनती हे कर जोर, बचालव हमर बसेरा।
झन काटव तुम पेड़, उजाड़व झन ये डेरा।।
हाथी बंदर शेर, हवै जंगल के हीरा।
मनखे करै विनाश, होय तब अब्बड़ पीरा।।
जंगल हा हसदेव के, होवत सत्यानाश।
टँगिया धर के काटथे,पेड़ गिरय जस ताश।।
पेड़ गिरय जस ताश, देख रोवासी आथे।
मचगे हाहाकार, जंतु मन अब थर्राथे।।
मनखे पाप कमाय, करत हे आज अमंगल।
बाढ़त अत्याचार, परत हे सुन्ना जंगल।।
साँसा के गिनती रखौ, हावै ये दिन चार।
बेरा मा उड़ जात हे, नइ पाहू तुम पार।।
नइ पाहू तुम पार, हवा हे जीवन दाता।
पेड़ लगा लौ आज,पुण्य के खोलव खाता।
करहू झन उद्दंड, पलटही तुँहरो पासा।
छूट जाय जब प्राण, फेर ना आवय साँसा।।
रचनाकार
प्रिया देवांगन "प्रियू"
राजिम
जिला - गरियाबंद
छत्तीसगढ़
Priyadewangan1997@gmail.com