कैसे-कैसे दृष्टांत

अमृतकाल!  वाह क्या शब्द है! सुनते ही जीने-मरने की इच्छा समाप्त हो जाती है। किंतु पापी पेट नाम की भी एक चीज़ कहाती है। इसके लिेए हमें पौष्टिक भोजन की आवश्यकता होती है। हमारे लिए नहीं, तिरंगे की सेहत के लिए। आजकल उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता में बड़ी गिरावट आ गई है। उसे किसानों की पीठ पर बरसी लाठियों पर फहरने में बड़ा कष्ट हो रहा है। है तो तिरंगा ही। उसे किसी न किसी लाठी पर फहरना ही पड़ेगा। आजादी का अमृतोत्सव जो चल रहा है! डंडे और लाठी में अधिक अंतर नहीं है। दोनों नागनाथ और साँपनाथ हैं। इसका इस्तेमाल करने वाले सरकारें बदलती हैं, नीयत नहीं। 

डंडे पर झंडे बदलने वाले देश में डंडा कब लाठी रूपी वेश्या बन जाती है, पता ही नहीं चलता। एक बात तो माननी पड़ेगी कि डंडा झंडों के प्रति ईमानदारी दिखाने के चक्कर में हमेशा बदनाम होता रहता है। फहरने की क्रिया में डंडा और बरसने की क्रिया में लाठी बनना उसकी नियती है।

हम शरीर से तिरंगा और मन से नंगा बनते जा रहे हैं। जबकि होना इसके विपरीत चाहिए। गिरते किसानों के हाथों और कटते हरित वनों के बीच तिरंगा फहरने का प्रयास तो कर रहा है, लेकिन उसका मन साथ नहीं दे रहा। लगता है अशोक चक्र को आईसीयू में भर्ती करवाना पड़ेगा। 

ऐसे आईसीयू में जहाँ सच में ऑक्सीजन मिलता हो। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या उसे अस्पताल में एक अदद बिस्तर मिल पाएगा! मैं तो अशोक चक्र से कहता हूँ कि आजादी के अमृतोत्सव के अवसर पर फहराने वाले बड़े-बड़े हाथों से दोस्ती ही कर ले। किसे पता एक अदद बिस्तर ही मिल जाए।

हम सदियों से तन धोते आ रहे हैं। मन को धुले एक युग बीत गया। मन धुला होता तो भ्रष्टाचार, महंगाई, असिहुष्ता, भेदभाव, धर्म के नाम पर लड़ाई और बलात्कार के बैक्टिरिया और वायरस थोड़ी न हमारे देश में डेरा डाले रहते। ये तो इतने जिद्दी हैं कि वाटर कैनन की बौछारों और लाठीचार्जों से डरना तो दूर कोरोना जैसी लाखों बीमारियों के बाप तक को मसलकर रख देते हैं। जिस शह में ये पलते हैं, वहाँ खुराक ही ऐसी मिलती है कि डरना, रोना, बिलखना, भागना इनके डि.एन.ए. में ही नहीं दिखता।

इन सबके बीच कुछ लोग बड़े ही अजीब होते हैं। पीठ के पीछे हाथी गुजर जाए कोई बात नहीं, लेकिन आँखों के सामने मक्खी गुजर जाए तो रहा नहीं जाता। ऐसे लोग आँखें होकर भी अंधे होते हैं। और आए दिन पूछ बैठते हैं कि बताओ आजकल क्या चल रहा है? 

उन्हें कैसे बताया जाए कि विकास की तूती और बाहुबलियों की मूती बोल रही है। नशे में धुत्त हत्यारे सिगरेट का धुँआ उड़ा रहे हैं तो कोई निरीह बेबस आदिवासी युवक पर मूतकर स्वच्छ भारत अभियान का प्रमोशन कर रहा है। मूतने की यह तस्वीर इक्कीसवीं सदी के भारत की स्वच्छ भारत की सबसे बढ़िया तस्वीर है। मूतने का यह दृश्य हमारे समय का राष्ट्रीय गर्व है। मूतने वालों के भी दो धड़ बन गए हैं। गरीब मूतने वाले हवा में बनाए गए शौच में मूतकर अपनी लघुशंका दूर करने का भ्रम पाल रहे हैं वहीं धनवान मूतने वाले सहने वालों पर मूतकर स्वच्छता की नई मिसाल कायम कर रहे हैं।

मूतने की यह प्रक्रिया बड़ी पावन प्रक्रिया के रूप में देखी जा रही है। अमृतकाल में इस तरह से अमृत बरसेगा ऐसा किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। वाह-वाह क्या अमृत वर्षा है। मानो विकास बरस रहा है। मन करता है खुद को भिगो लें और चुनाव के पाँचवें साल में सत्ताधारियों से चरण धुलवाकर खुद को एकदम पवित्र कर लें।

क्या यह मूतने का अमृतकाल अभी से आरंभ हुआ है? मित्र ने आश्चर्य से पूछा। मुझे उस पर हँसी आने लगी। कहा,  ताक़तवर लोग पिछले पचहत्तर वर्षों से लोकतंत्र और संविधान की आड़ लेकर पूरे देश पर मूत रहे हैं। जाति-वर्ण व्यवस्था के ऊँचे मंच से थोडे़ से लोग सहस्त्राब्दियों से मंत्रोच्चार और शास्त्रोक्त विधि-विधान के साथ मूत रहे हैं और अपने मूत्र को परम पवित्र बता रहे हैं। 

फ़ासिस्ट हत्यारे दशकों से लगातार इस कदर मूत रहे हैं कि देश की सारी नदियाँ और झीलें वैसे ही उनके मूत से भर गयी हैं जैसे गलियाँ और सड़कें लोगों के ख़ून से। मूतना एक ऐसी सांस्कृतिक-राजनीतिक क्रिया बन गयी है कि तरह-तरह के लोग आम लोगों पर तरह-तरह से मूत रहे हैं। संसद और विधानसभाएँ काले क़ानून मूत रही है। 

अदालतें और मीडिया न्याय की नौटंकी मूत रही हैं,  सत्ता का आतंक बंदूक की नालों से आग मूत रहा है। ताकतवर लोगों के जनता के सिर पर मूतने की इस क्रिया से ध्यान भटकाने के लिए रंग-बिरंगे विद्वज्जनों के झुण्ड ऑनलाइन और ऑफ़लाइन अमूर्त-अकर्मक सिद्धान्त मूत रहे हैं, रंगारंग साहित्योत्सवों और सरकारी आयोजनों में  कवि-कलावंत अलौकिक कला मूत रहे हैं,  उत्तरआधुनिकतावाद क्रान्तियों की मृत्यु और इतिहास के अंत की घोषणा मूत रहा है, जनता की आकांक्षाओं और क्रान्ति की विचारधारा पर सामाजिक जनवाद और बुर्जुआ उदारवाद-सुधारवाद मूत रहे हैं।

कुछ भी कहो यार मूतने वाले से ज्याादा मूतभिगलुओं सम्मान होना चाहिए। क्या ऐसा नहीं लगता कि भविष्य में कुछ प्रावधान होना चाहिए? लोगों में इसके प्रति आस जगी है। अमृतकाल भी हमें कहाँ नाराज़ करने वाला है। अमृतकाल का फल चुनाव के समय प्राप्त होता है। 

साक्षात सर्वेसर्वा मूतभिगलुओं को घर बुलाकर उनके चरण धोएगा। अगले दिन तस्वीर छपेगी और मीडिया में डंका बजेगा। मूतभिगलुओं का मूत साफ हो जाएगा। इस तरह विकास नए करवट के साथ एक नया अध्याय लिखेगा। अमृतकाल का जयकारा लगेगा।

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657