परिवर्तन

मुझे नहीं भाते हैं परिवर्तन,

लाख किया हमने जतन।

पर नहीं बदल पाये खुद को,

हृदय से दूर न कर पाये उनको।

ठहर गया है जीवन मेरा,

उनके विरह के चक्रव्यूह में,

निकल कर भी जी न सकेंगे,

उलझना ही रास आया हमको।


हाँ, घबराती हूँ मैं परिवर्तन से,

जानकर भी अनभिज्ञ रहती

हूँ प्रकृति के नियम से।

है इसमें भी मेरा स्वार्थ छुपा,

तेरे होने का मृदु आभास छुपा।

क्यों लाऊँ मैं बदलाव इसमें?

विरह गीत में भी मेरे,

अटल प्रीत का उन्माद छुपा।


मेरे जीवन का सबसे बड़ा सत्य

जिसे झूठ बोल सबसे छुपाती हूँ।

मेरे जीवन का इक तू ही लक्ष्य,

जिसपर बिन अधिकार के भी

अधिकार मैं जताती हूँ।

बदल रहे हो तुम जानती हूँ मैं,

किंतु स्वयं परिवर्तन से डर जाती हूँ।


डॉ.रीमा सिन्हा (लखनऊ )