बस यूँहीं

हम सब दोस्त मिलकर इधर-उधर की बातें कर रहे थे। इधर उधर की बातें शुद्ध इधर उधर की होती है। इसमें किसी भी प्रकार का समझौता नहीं होता। वैसे भी समझौता नौकरीपेशा लोग करते हैं, निकम्मे तो सिर्फ बेकार की बातें करते हैं। इनके पास कुछ हो न हो समय की अकूत संपदा अवश्य होती है। इसीलिए ये लोग समझौता करना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। इसी निकम्मेपन के चलते तो देश में कान की बीमारी वाले मरीजों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। रक्तदान शिविर में रक्तदान करें न करें, लोगों के कान पका-पका कर दुनिया भर का खून निकालने में इनसे कोई होड़ नहीं ले सकता।

इन्हीं लोगों के बीच हमारी इधर उधर की बातें किसान आंदोलन से होते हुए संसद भवन की कैंटीन तक पहुंच गई। सिर्फ बातें होती तो दुनिया बड़ी सुखी रहती। कमबख्त इन बातों ने ही तो दुनिया में कोहराम मचा रखा है।

मेरी कई बुरी आदतों में एक बुरी आदत दिन में सुनी-सुनाई बातों का रात के सपनों में रिहर्सल करना है। कल रात में देश का प्रधानमंत्री बना था। संसद भवन की आलीशान कैंटीन में सब्सिडी वाला भोजन करने के इरादे से प्लेट में मक्खन पराठा, बिरयानी चावल, राजमा दाल, पनीर की सब्जी, रायता आदि का लुत्फ उठाने लगा। जब मैंने इन सब की कीमत पूछी तो किसी ने बताया - अठारह रुपए! मुझे विश्वास न हुआ। मैंने फिर से पूछा - सच-सच बताओ कितना हुआ? फिर से जवाब आया अठारह रुपए! मैं प्रसन्न होकर विजिटर रजिस्टर में अन्नदाता सुखीभव लिखने ही वाला था कि किसी ने मेरी कमर पर जमकर लात मारी।

 पलभर में सपनों की दुनिया से लुढ़कर जमीन की खाक चाट रहा था। कर्जे के बोझ तले मुझे, मां के भरोसे छोड़ चले पिता की याद हो आई। उन्होंने इसी कमरे में कुछ साल पहले फाँसी लगा ली थी। लगा यदि सच में अन्नदाता सुखीभव होता तो आज मेरी मां घर-घर जाकर बर्तन-पोंछा का काम थोड़े न करती। अन्नदाता के भाग्य में कुछ भी हो सकता है लेकिन सुख हरगिज़ नहीं हो सकता। काश मैं सपना टूटने से पहले ही अन्नदाता सुखीभव लिख देता। दुर्भाग्य से अन्नदाता को सपने में भी सुखीभव होने का अवसर न मिल सका। 

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657