छेड़ने की गुस्ताखी

दो दिन से एक दाढ़ी वाले बाबा भीड़-भाड़ वाले चौरस्ते पर सब्जी बेच रहे थे। हरकारा लगाते हुए कह रहे थे – मूली लेलो, गाजर ले लो। सस्ते-सस्ते दामों पर, मनचाही सब्जी ले लो। हम कुछ लोगों ने उनसे कहा, बाबा आपके बारे में शिकायतें आ रही हैं। सुना है आप अपने आस-पड़ोस के खेतों से सब्जी चुरा ले आते है और औने-पौने दामों में बेचते हैं। ऐसा करते आपको शर्म नहीं आती।

बाबा नितांत स्वर में बोले, शर्म? काहे का शर्म? किससे शर्म? और आखिर क्यों करूँ शर्म? चलो एक पल भर के लिए मान भी लिया जाए कि मैं चोरी की हुई सब्जी बेचता हूँ इसका कोई प्रमाण है तुम्हारे पास? नहीं न। पहली बात तो यह कि बिना प्रमाण के किसी पर निराधार आरोप लगाना शोभा नहीं देता। मैं सब्जी औने दाम में बेचूँ या फिर पौने दाम में। इससे तुम्हें क्यों खुजली मची है? 

चाहे कुर्सी प्रधानमंत्री की हो या फिर इस गंदे से चौरस्ते पर बैठने के लिए थोड़ी सी जगह की, दोनों बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। इतिहास गवाह है बेटा थोड़ी सी जगह पाने के चक्कर में दुनियाभर के लोग अपनी दुनिया लुटा देते हैं। इस पर भी न तो जगह मिलती है और न ही दुनिया। दोनों से ठन-ठन गोपाल होकर इस दुनिया से निकल पड़ते हैं। कोई संन्यासी बनकर कुर्सी पर बैठा है तो कोई घर-संसार। कोई हजार चूहे खाकर तो कोई अपनों को डुबोकर। 

बेटा इच्छाओं को पालने से कुछ नहीं होता। होता है तो उसके लिए तीन-पाँच करने से। इस चौरस्ते पर इतनी छोटी सी जगह पाने के लिए मैं कितने लोगों को कितना रुपया देता हूँ तुम्हें क्या पता? 

मेरे जैसे लोगों के दिए हुए रुपए से यहाँ का फलाना नेता गुंडे पालता है। उन्हीं के बल पर जमीन हड़पने का पावन धंधा करता है। अपनी कमाई का हिस्सा अपने से बड़े नेता को देता है। बड़े नेता यही धंधा बृहत स्तर पर करता है और अपने पद के मुताबिक शोभा बढ़ाता है। धीरे-धीरे यह हड़पने की घुट्टी केंचुए को साँप और साँप को अजगर बना देता है। बेटा यह सिलसिला वामन अवतार की तरह होता है। पहले दिखने में छोटा और आगे चलकर बड़ा बन जाता है।

बाबा की बातें सुन हम शर्म से पानी-पानी होकर लौटने ही वाले थे कि उन्होंने हमें रोक लिया। लगा कि हमारे बेशर्म होने का कोटा अभी बाकी था। बाबा ने कहा, बेटा एक बात तो बताओ। क्या दुनियाभर का तिनका तुम्हें मेरी दाढ़ी में ही नजर आता है? 

बरखूरदार! तिनका छिपाने के लिए दाढ़ी नहीं दिमाग की जरूरत पड़ती है। सरकारी संस्थाएँ आदि जब बेच दिए जाते हैं या फिर भाड़े पर चढ़ा दिए जाते हैं तब तो जाकर तुम लोग किसी की गर्दन नहीं पकड़ते। चले हैं मुझ पर अपनी धाक जमाने। अब छोटों में भी बड़ों सा जिगरा फिट हो गया है। जाते-जाते यह एक मूली ले जाओ। हो सके खा लेना वरना इसका जो करना है, कर लेना। वैसे भी आजकल चोरी की हुई चीजों का ही चलन अधिक है। इसलिए फिर कभी अनाप-शनाप बकने की कोशिश मत करना।   

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657