नाराज़ लोग और असंतुष्टि

पहले जब भारत या वर्षाऋतु के वि‍षय में स्‍कूल के दि‍नों में नि‍बंध लि‍खना होता था, तब एक ही वाक्‍य से शुरुआत होती थी- भारत कृषि‍ प्रधान देश है लेकि‍न आज अति‍वृष्‍टि‍ और अनावृष्‍टि‍ ने इस कृषि‍ प्रधानता पर चोट दर चोट पहुंचाई है। फलस्‍वरुप इस वृष्‍टि‍ के साथ अनैति‍क राजनीति‍ ने मि‍लकर जंबद्वीपे भरतखंडे अर्थात् भारत वर्ष की भूमि‍ पर असंतुष्‍टों की खेती करना शुरु कर दि‍या है। असंतुष्‍टों को हम रुठने या खफा होने वाला भी कह सकते है।

 आपने उनके सहयोग के बदले, उससे अधि‍क कुछ नहीं कि‍या, या अपने पि‍छलग्‍गू का आपने कुद खास काम नहीं करवाया या फि‍र आपने अपने चम्‍मचों को नजर अंदाज कि‍या अथवा उसके क्रि‍याकलापों की समीक्षा कर अपने आपको पाक साफ साबि‍त करने की कोशि‍शों में उसे नाराज कर गये- असंतुष्‍ट बस इसी न माने जाने वाली प्रक्रि‍या के तहत पैदा हो जाते हैं और इस बात को बेहतर महसूस कर सकते हैं कि‍ दि‍न भर में आप ज्‍यादातर अस्‍वीकार की मुद्रा में ही रहते हैं, ऐसे में असंतुष्‍टों की संख्‍या बढ़ेगी कि‍ नहीं---- बोलि‍ये। यह तो एक आम आदमी की बात हुई। जैसे-जैसे आप खास से खासम-खास होते चले जायेंगे, असंतुष्‍ट नि‍र्माता यंत्र के रुप में आपकी चर्चा जोरों पर होगी।

कहने का अर्थ यही कि‍ आप सभी को संतुष्‍ट नहीं कर पायेंगे और कहीं न कहीं कोई असंतुष्‍ट पड़ा रह ही जाएगा। आपने यह कहानी तो सुनी होगी कि‍ एक बाप अपने बेटे के साथ अपने गधे को बेचने बाजार चला। तीनों पैदल चल रहे थे। कि‍सी ने कहा- बेटे को गधे की सवारी कर लेनी चाहि‍ए। बेटे को बाप ने गधे पर बि‍ठाया। कुछ दूर जाने पर कि‍सी ने कहा – बूढ़े बाप को गधे पर बैठना चाहि‍ए, लड़के को नहीं। 

ऐसा ही कि‍या गया। फि‍र कुछ दूर जाने पर लोगों ने दोनों को सवारी करने की सलाह दी। उन्‍होंने इसे मानकर सवारी की। कुछ दूर जाने पर गधा प्रेमी लेागों ने सलाह दी कि‍ इस मरि‍यल गधे पर मत लदो। तुम दोनों मि‍लकर इसे ढोओ---- बस फि‍र क्‍या था। बाप-बेटे लकड़ी के सहारे गधे को ढोने लगे। अपनी असहज स्‍थि‍ति‍ के कारण गधा पुल से नीचे पानी में गि‍रकर मर गया। कि‍तनों को संतुष्‍ट करने की कोशि‍श की गयी – कोई संतुष्‍ट नहीं हो सका और गधे से भी उन्‍हें हाथ धोना पड़ा। दोनों स्‍थि‍ति‍यों में गधा पि‍सा जा रहा है। गधे पर बाप और बेटे दोनों के चढ़ने का समय चल रहा है। बेचारा गधा अपना रोना रो रहा है।

इन सब बाप बेटों के बदलने, गधे के पि‍सने और रोने के पीछे व्‍यक्‍ति‍ की संतुष्‍टि‍ ही तो है।  असंतुष्‍टि‍ की पहली शर्त है जि‍से कि‍सी से मि‍लकर अपनी संतुष्‍टि‍ पायी जा सकती है, उससे मि‍लने में कि‍सी तरह की नैति‍क और मूल्‍यवादी बातों का प्रश्‍न ही नहीं उठता। तो इस तरह यह कहा जाग कि‍ आज कि‍ राजनीति‍ की पृथ्‍वी को यही असंतुष्‍टि‍ रुपी शेष नाग सम्‍हाले हुए है, तो गलत न होगा। आप यह मत पूछि‍ये कि‍ गधा---आइ मीन आम आदमी के असंतुष्‍ट या संतुष्‍ट होने का क्‍या होगा?

जि‍से बेचा जाना है, उससे उसकी मर्जी नहीं पूछी जाती। बस गधा रहे अपने में--- हमें उससे क्‍या लेना देना---। लेकि‍न असंतुष्‍टि‍ की यही स्‍थि‍ति‍ रही तो कहानी के गधे का पुल में गि‍रकर मर जाना शायद नहीं होगा क्‍योंकि‍ गधे को जहां बुद्धि‍ के मामले में गधा या उल्‍लू कहा जा सकता है, वहीं उसकी जोरदार दुलत्ती को नजर अंदाज नहीं कि‍या जा सकता। 

और आज का शक्‍ति‍मान इक्‍कीसवीं सदी का गधा जब भी पूरी रह असंतुष्‍ट होगा, असंतुष्‍टों की सारी फौज भी शायद उसकी दुलत्ति‍यों की मार से बच नहीं पायेगी। इसलि‍ये असंतुष्‍ट प्रधान देश कि‍ असंतुष्‍टों, सावधान। गधा अपने पैरों में शक्‍ति‍ भर रहा है, उसका भी ख्‍याल करो तो शायद दुलत्ती और असंतुष्‍टि‍ से बच जाओगे वरना-----ईश्‍वर ही मालि‍क है---। 

डॉ0 टी0 महादेव राव 

विशाखापटनम  (आंध्र प्रदेश)

9394290204