नीरव मन में जब शब्दों के तीर चलते हैं,
भावों के अंजन हृदय पीड़ बनकर बहते हैं।
धुंधलाये सुख के नीलम पर घने कुहिर का साया,
शब्द शब्द बन दृग मुक्ता करुण कोलाहल करते हैं।
जान गयी इस दुनियां की लीला,
शुभ्र है चित्रपटी पर दुःख का सवेरा।
जल की मीन भी रह जाती प्यासी,
भाग्य विधा का अनूठा है खेला।
मृदु स्मृतियों से अधर है आज सस्मित,
स्वप्न स्वर्ण रजत मन है आज विस्मित।
अणु-अणु का कंपन ज्यों उर स्पन्द मेरा,
छल रहा क्यों आज मेरा मन,मैं चकित।
शिथिल इस काया को गति का वरदान मिला,
शब्दों ने जब छुआ मुझे अस्तित्व का भान मिला।
शूल दिये जो उसने फूल बनाकर रच गयी,
सूखी लता कुंज को मधुप और मधुमास मिला।
डॉ.रीमा सिन्हा (लखनऊ )