आज आसमां पर उछालो ये कंकर जोरों से..

हां, जिंदगी यहां हर किसी को बख्शी नहीं जाती

कि 'जीने' की चाहत में सही से मर भी न सका !!


जमीं से आसमां तक 'लिखा' तो बेइंतहा लिखा

कि सब लिखते हुए भी खुद को मैं पढ़ न सका !!


दोस्तों , पिघल जाते हैं यहां पहाड़ों के पत्थर भी

रिसता रहा मैं पल-पल ,कि लकीरें बदल न सका !!


गिरा इतना , ठोकरों के सबब भी याद नहीं अब

चोट इतनी मिलीं कि सही से संभल भी न सका !!


आती-जाती रहीं उम्मीदें 'खुष्क बारिशों' की तरह

क्या कहूं मैं अंधेरों में निशां धूप के गिन न सका !!


सुनों..

हां, आज आसमां पर उछालो तो ये कंकर जोरों से

फिर न कहना कभी ,"मन" का मैं कुछ कर न सका !!


नमिता गुप्ता "मनसी"

मेरठ, उत्तर प्रदेश