सरकारी तोपों का कारनामा

एक जमाना था जब सरकारें आती ही जाने के लिए थीं। सरकार तोप ने सिर्फ दो काम किये थे। वसूली और बुत खड़े करना। बुत खड़ा करना दीर्घवर्षीय योजना का हिस्सा था। विकास कार्य एकदम ठहर गए, समस्याएँ सुरसा हो गईं, गरीब ज्यादा गरीब हो गए। अगली सरकार आयी। उसके संकल्प थे- पिछली सरकार से दोगुनी कमाई करना और दोगुने बुत बनवाना। प्रतियोगिता प्रदेश के विकास को लेकर नहीं, घूस और बुत को लेकर सरकार ने चौराहों पर, पार्कों में, फुटपाथों पर, ओनो-कोनों में सार्वजनिक भवनों के सामने और भीतर भी इतने बुत बनवा डाले कि महापुरुषों की किल्लत पड़ गयी। 

तब उसने मृत छुटभइयों के बुत खड़े करने शुरू कर दिये। बुत टन-दो-टन हैसियत वालों के नहीं, किलो-दो किलो हैसियत वाले, अनजाने, अनचीन्हे, अबूझ, अनाम भूतों तीसरी सरकार आयी। उसका संकल्प पिछली सरकार से तिगुनी कमाई करना और तिगुने बुत बनवाना था। सरकार जितनी ऊपरी कमाई करती थी, उसी अनुपात से बुत बनवाती थी यानी बुत की गणना कर ऊपरी कमाई का अंदाज लगाया जा सकता था या यों कहें ऊपरी कमाई की जानकारी होने पर बुतों का अंदाज लगाया जा सकता था। अंकगणित बहुत आसान।

सरकार का चाल-चरित्र-चिंतन ऐसा कि लोगों में भय व्याप्त हो गया। जाने कब गोली मारकर कह दिया जाए कि 'अमुक जी' ने देश-समाज के लिए शहादत दी है और जीता-जागता व्यक्ति किसी चौराहे, पार्क, ओने-कोने या सार्वजनिक भवन में बुत में तब्दील हो जाए।

 लोग अंधेरे-उजेले निकलने में घबराने लगे। बुत देखकर काँप जाते कल मेरा भी यही हश्र न हो। कुछ बात तो है मोमिन जो छा गयी खामोशी, किसी बुत को दे दिया दिल जे बुत बन गए। सरकार जीवित व्यक्तियों के लिए कुछ न करती, पर मृत व्यक्तियों की प्रतीक पूजा के लिए सदैव तत्पर रहती। वह लोगों से कहती, 'बुतों को देखो, इनसे प्रेरणा ग्रहण करो।' 

लोग कहते, 'हमें बुत के भूत नहीं रोटी चाहिए। हमारी खुद की जिंदगी बुत सरीखी हो गयी है।' सरकार कहती, 'रोटी? यह तो बहुत सामान्य चीज है। उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण मरे लोगों के बुत हैं, जिनमें भावना का मौन दर्शन होता है। इन्हें नमन करो, चरणवंदन करो, फूल-माला अर्पित करो। इनसे प्रेरणा ग्रहण करो, प्रेरणा से चेतना जागृत होगी, चेतना से सामाजिक न्याय मिलेगा, सामाजिक न्याय से....!'

सरकारें आती रहीं, जाती रहीं, लोग भूख से, गरीबी से, त्रस्त होते रहे। सरकार लोगों को हुतात्मा बनाते हुए बुत खड़ी करती रही- 'एक बुत बनाऊँगा और तेरी पूजा करूंगा।' सारा शहर बुतों से पट गया। सड़क हो या फुटपाथ, चलना मुश्किल पार्कों में चहलकदमी भी कठिन। 

कौन सी जगह जहाँ जलवा-ए-माशूत नहीं। लोग दहशत के कारण शहर छोड़कर भागने लगे। शहर में सिर्फ बुत बचे या सरकारी भूत। बुत-लक्ष्य पूरा नहीं हो रहा था। सरकार ने तय किया कि वह अन्य बस्तियों के लोगों को शहीद कर बुत खड़े करने का लक्ष्य पूरा करेगी। ऐसे में आपको सतर्क करना मेरा परम पुनीत कर्तव्य है। सरकार के बुत अभियान में कहीं आपका सिर न आ जाए...। एवमस्तु न ! 

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, चरवाणीः 7386578657