ख़्वाबों और ख़्वाहिशों के कैदी

ख़्वाबों और ख़्वाहिशों के कैदी न होते,

तो यह दिल लापता न होता।

रहगुज़र में तन्हा ही सफर करते,

गोया यह खूबसूरत हादसा न होता।


मंज़िल न होती हमनफस न होता,

इस ज़िंदगी का कोई फायदा न होता।

यूँ ही चल पड़ते राह-ए-ज़ुल्मत में,

मुकाम-ए-इश्क़ ग़र अलहदा न होता।


जिंदगानी थम जाती मझधार में,

ग़र यारों से हमारा राब्ता न होता।

है मुहब्बत भी बड़े काम की चीज़,

फ़क़त इसमें मशग्ला न होता।


ख़्वाबों और ख़्वाहिशों के इत्र ग़र फैलते नहीं,

तो बा-यक़ी मंज़िल का रास्ता न होता।

ख़्वाबों के धागे से बुनी जाती है हक़ीक़त,

बिन इसके खुशियों का फ़लसफ़ा न होता।


                   डॉ. रीमा सिन्हा

               लखनऊ-उत्तर प्रदेश