मरुस्थल की मृगमरीचिका में,
मृगनयनी ढूंढती तुमको है।
दिवा स्वप्न सम हो तुम तो,
मृण्मयी मूरत पूजती तुमको है।
जानकर भी तुम एक छलावा हो,
कब ये जोगनी भूलती तुमको है?
बजने वाली हर विरह बीन में,
सस्मित स्मृति कण बींधती तुमको है।
तुम्हारे अभाव में भी चिर तृप्ति का भाव,
पलकों की मीलित कलियाँ सींचती तुमको है।
बिन क्रय के पाया मैंने जिस वेदना को,
हार कर स्वयं जीतती तुमको है।
डॉ. रीमा सिन्हा (लखनऊ)