स्कन्दमाता

कार्तिकेय के दाई अच, स्कन्दमाता कहाथच।

शेर सवारी, कमल आसन बिदमान रहिथच।।


परबत म बसके, परानी म नवा सुधबुध जगाए।

तोर किरपा ले मुरुख मन भी गियानी हो जाए।।


बैइंहा हे चार ठन, दू हाथ म धरे हवच कमल।

तीसर हाथ म गोदी पाए हच दुलरुवा स्कन्द।।


चौथा हाथ ले देथच जन-जन ल आसिरबाद।

सुख म जिनगी बीते, दुख दुरिहा जावय भाग।।


तैंय सुख दे के मुक्ती के बंद दुवारी खोलथच। 

भगत मन के इक्छा ल झटकुन पूरा करथच।।


तोर सेवा करके सेवक के आचना हो जाथे पूरा।

बंधना छुटथे, नइ रहय कुछु लालच ह अधूरा।।


पूजा, जप करहूँ निरमल मन ले धियान लगाके।

अपन बेटा समझ के, भवसागर ले पार लगाबे।।


कवि- अशोक कुमार यादव मुंगेली, छत्तीसगढ़

जिलाध्यक्ष राष्ट्रीय कवि संगम इकाई।