सांसदी से विधायकी की भाजपायी उलटबांसी

भारतीय जनता पार्टी प्रयोगों के नये दौर से गुजर रही है। दुनिया में नेतृत्व व जनप्रतिनिधित्व का विकास नीचे से ऊपर तरफ होता है। कतिपय अपवादों को छोड़कर अपने कार्यकर्ताओं को ग्राम पंचायत या पार्षद स्तर से विधायकी और फिर वहां से सासंदी का रास्ता दिखलाया जाता है लेकिन भाजपा में उल्टी धारा बह रही है। इसी नवम्बर में जिन राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं उनमें मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ भी हैं। दोनों राज्यों के अब तक जितने उम्मीदवारों की घोषणा हो चुकी है उनमें अनेक ऐसे हैं जो साफ तौर पर भाजपायी प्रयोग के गिनीपिग बनाये जा रहे हैं। 

ये सांसद हैं लेकिन उन्हें विभिन्न विधानसभाई सीटों पर लड़ाया जा रहा है। कुछ तो मंत्री भी हैं। संसद सदस्यों को राज्यों में विधानसभा चुनाव लड़ने के लिये उतारना साबित करता है कि भाजपा के पास मुद्दों के साथ-साथ चेहरों की भी कमी है। हालांकि कई राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार इसके पीछे पार्टी के सर्वेसर्वा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके प्रमुख सहयोगी व केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह की सुनियोजित चाल हो सकती है। देखना होगा कि यह कदम आत्मघाती साबित होता है या सफलता दिलाएगा।

छत्तीसगढ़ की पहले बात कर लें! यहां भाजपा बेहद कमजोर स्थिति में है जहां 90 सीटों वाले सदन में उसके केवल 14 सदस्य हैं। यहां जिन प्रत्याशियों के नामों का ऐलान हो गया है, उनमें दुर्ग से लोकसभा में पहुंचे विजय बघेल को उनके चाचा व प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के खिलाफ पाटन क्षेत्र से उतारा गया है। यह सीट दुर्ग की 8 विधानसभा सीटों में से एक है। 

राज्यसभा के सदस्य रामविचार नेताम सरगुजा क्षेत्र की रामानुजगंज सीट से चुनाव लड़ेंगे। रायपुर (शहर) सीट पर वर्तमान विधायक श्रीचंद सुंदरानी के साथ ही राजधानी के पूर्व महापौर सुनील सोनी का नाम सबसे आगे चल रहा है जो इस वक्त रायपुर के सांसद हैं। बिलासपुर सीट का लोकसभा में प्रतिनिधित्व करने वाले अरूण साव भाजपा के अध्यक्ष हैं जिनके बारे में कहा जा रहा है कि उन्हें बिलासपुर विधानसभा सीट से लड़ाया जा सकता है ताकि जीत की स्थिति में (जो वर्तमान परिदृश्य में दूर की कौड़ी है) उनका ओबीसी चेहरा काम आ सके और भूपेश बघेल का यह चुनाव प्रचार के दौरान जवाबी नाम भी हो। 

छत्तीसगढ़ की पिछले मुख्यमंत्रियों के समय से यह परम्परा बनी है कि जो पार्टी अध्यक्ष बहुमत दिला सके वही सीएम बन सकता है। 2003 में डॉ. रमन सिंह को सीएम पद इसलिये मिला था क्योंकि उन्हीं के नेतृत्व में भाजपा जीती थी। ऐसे ही, भूपेश बघेल की अध्यक्षता में कांग्रेस जीती जिसके बाद उनकी इस पद की दावेदारी पर पार्टी हाईकमान की मुहर लगी थी। देखना होगा कि अरूण साव को टिकट थमाई जाती है या नहीं और अगर ऐसा होता है तो क्या साव इस मौके को अपने लिये भुना पायेंगे? 

छत्तीसगढ़ की केन्द्रीय मंत्रिमंडल में एकमात्र प्रतिनिधि सरगुजा लोकसभा क्षेत्र की सांसद रेणुका सिंह हैं। क्या उन्हें भी छग में किसी सीट पर विधानसभा चुनाव लड़ने के लिये कहा जायेगा? अब तक इसका खुलासा नहीं हुआ है। हालांकि अभी काफी सीटों पर नाम घोषित होने बकाया हैं। खैर, मध्यप्रदेश का मसला और भी दिलचस्प है। पेचीदा भी। छग में तो भाजपा के पास खोने के लिये कुछ नहीं है परन्तु मप्र में तो पूरी सरकार ही उसकी झोली से सरक सकती है। वैसे भी पिछली बार कांग्रेस की ही सरकार बनी थी। 

कमलनाथ के नेतृत्व में वह डेढ़ साल चली भी परन्तु ज्योतिरादित्य सिंधिया की अगुवाई में दर्जन भर से ज्यादा विधायकों को तोड़कर अपने पक्ष में लेते हुए शिवराज सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी थी। इस लिहाज से यह पराजित पार्टी की सरकार है। इस बीच सरकार के खिलाफ जन आक्रोश तगड़ा है। वहां तीन तरह की भाजपा बतलाई जाती है- शिवराज की, महाराज की (सिंधिया) और नाराज की (असंतुष्टों की)। यहां पीएम व शाह के लगातार दौरे हो रहे हैं लेकिन हालत सुधरने के नाम नहीं ले रहे हैं। 

उल्टे, कांग्रेस सतत मजबूत हो रही है। ज्योतिरादित्य के निकटस्थ कई लोग कांग्रेस में लौट चुके हैं। पिछले हफ्ते मोदी जब आये तो उन्होंने मंच पर शिवराज से जो व्यवहार किया तथा सम्बोधन के दौरान उनका नाम तक नहीं लिया, उससे कुछ साफ संकेत मिल रहे हैं। 

कहा जा रहा है कि चौहान साहब अब मोदी के विश्वासपात्र नहीं रहे। उन्हें निपटाने के लिये ही मोदी-शाह ने तीन केन्द्रीय मंत्रियों- प्रह्लाद पटेल, नरेन्द्र सिंह तोमर, फग्गन सिंह कुलस्ते समेत 7 सांसदों को विधानसभा सीटों की टिकटें थमाकर राज्य में भेज दिया है।

इतना ही नहीं, राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय सहित, जो कभी खुद ही प्रत्याशी तय करते थे, अब इंदौर-1 से चुनाव लडेंगे। कहा जाता है कि मप्र भाजपा के सामने मुद्दों के साथ चेहरों के भारी अभाव के ही चलते भाजपा ने इतने सांसदों को उतारा है। अब भाजपा को बहुमत मिलता है तो मुख्यमंत्री पद के लिये और हारती है तो विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के लिये बड़ों के बीच घमासान तय है।

 मजेदार बात यह है कि अब तक खुद शिवराज सिंह चौहान की उम्मीदवारी का अता-पता नहीं है। अगर वे चुनावी मैदान में नहीं उतारे जाते तो किसके चेहरे पर पार्टी चुनाव लड़ेगी, यह सवाल भी बड़ा है। स्थानीय चेहरे के अभाव में यह चुनाव अपने आप मोदी की छवि और उन्हीं के चेहरे पर लड़ा जायेगा। पराजय सामने दिख रही है, तो ऐसे में क्या मोदी अपना नाम राज्य इकाई को उधार देंगे? रणनीति की यह उलटबांसी भाजपा के लिये वरदान बनती है या कयामत- देखना दिलचस्प होगा।