शहीदों के स्मारक पर एक दीप जलाएँगे।

कलम आज जय उनकी बोलो, जिनकी अजब कहानी है

जिनके बलिदानों से पावन, गंगा–जमुना का पानी है,

कलम आज जय उनकी बोलो, जो फाँसी पर झूल गये,

भारत माता की खातिर जो, धर्म-जातियाँ भूल गये

कलम आज जय उनकी बोलो, जो बढ़ते ही जाते थे

सत्य-अहिंसावाली सरगम, साँस-साँस पर गाते थे

कलम आज जय उनकी बोलो, जो शोले बन जाते थे

दुश्मन के सीने पर चढ़ जो, अंगारे बरसाते थे

जिनको ना जालिम शासन की काल कोठरी रोक सकीं

जिनके तूफानी कदमों को, बंदूकें ना टोक सकीं

जिनके कदमों की आहट से, सिंहासन हिल जाता था

लंदन का शाही तख़्ता भी, तिनके-सा थर्राता था

जिन चरणों को चूम मौत भी, मन ही मन इठलाती थी

जहाँ मौत मरकर खुद को भी, अजर-अमर कर जाती थी

जिनके कारण अमर तिरंगा, आसमान को चूम सका

भूमंडल की सीमाओं तक, अकड़ शान से घूम सका

कलम चलो हम दोनों मिलकर, सोयी अलख जगाएँगे

और शहीदों के स्मारक पर, एक दीप जलाएँगे।

कुछ सूली चढ़ गये, किसी को अरथी तक ना मिल पायी।

कभी देश के दीवानों को, रोटी तक न मिल पायी,

कुछ खंडहर-मरघट में भटके, कुछ कोल्हू, गुड़ घानी में,

कुछ पीसे चकिया के सिल में, तो कुछ कालेपानी में,

कहीं बेत के संग देह की खाल, लिपट आ गाती थी,

कहीं मौत भी अपनी सूरत, देख-देख घबराती थी,

पिघल गये हिमखंड न जाने, कितने गरम जवानी से

लेकिन उफ्फ तक कभी न निकली, इन वीरों की बानी से,

हैं कितने अनगिनत दधीचि, जो अस्थि तक लुटा गये,

मातृभूभि की खातिर गलकर, जो अपने को मिटा गये,

बढ़ते रहे ज़ुल्म वीरों पर, पर साहस ना डोल सका,

क्या सुरसा का बढ़ता मुख था, न हनुमान को तोल सका,

स्वारथ में डूबे भारत को, ये सब याद दिलाएँगे।

चलो शहीदों के स्मारक पर, एक दीप जलाएगे

भूला भारत उनको जो कि अपने सपने भुला गये,

आज़ादी के हवन-कुंड में तन की समिधा- जला गये,

जिनका लोहित, चंदन बनकर, भारत माँ के शीश चढ़ा

वंदे मातरम्-इंकलाब का,जिन साँसों ने श्लोक पढ़ा,

कम पड़ते थे तो सिर जिनके, फूल-कली बन जाते थे,

जो बलिवेदी के पथ पर, चादर जैसे बिछ जाते थे,

आज शहादत तारीखों में, क्यों बर्बर कहलाती है?

क्यों काली करतूतें कुर्सी की दिल्ली सह जाती है?

कब तक दिल्ली भीगी बिल्ली, बनकर खंभा नोचेगी?

राष्ट्रधर्म है राजनीति से बड़ा, कभी क्या सोचेगी?

बिगड़े बैलों की नाकों में, नाथ बाँधना पड़ता है,

मतवाले हाथी के सिर पर, शूल गाड़ना पड़ता है,

जब सत्त्ता रस्ता भटके, दीपक बन जाना ही होगा,

कवि-कलम को तब मिलकर आवाज़ उठाना ही होगा,

हम कलयुग के पञ्चजन्य हैं, मिलकर घोष उठायेंगे,

चलो शहीदों के स्मारक पर, एक दीप जलाएगे।

तुम घृत दो अपनी स्याही का, मैं तुमको वाणी दूंगी,

तुम तलवार बनो रानी की, मैं उस पर पानी दूंगी,

तुम दिनकर का तेज बनों, मैं प्रखर किरण बन जाऊँगी,

शब्दों की आभा में दागी चेहरे मैं दिखलाऊँगी,

ये मंदिर-मस्जिद की खातिर ताल ठोकनेवाले हैं,

कुछ आरक्षण मुद्दे पर, दिन-रात भौंकनेवाले हैं,

कुछ को भारत से बढ़कर हर स्वार्थ दिखायी देता है,

लेकिन भूखे-मज़लूमों का ना राष्ट्र दिखाई देता है,

कहीं गरीबों की आहें, प्रतिमाओं में घुट जाती हैं,

फिर पांचाली की इज़्जत कुछ सिक्कों में लुट जाती है,

अब भी हिमशिखरों का रंजित भाल दिखाई देता है,

रोज़ तिरंगे में लिपटा, इक लाल दिखाई देता है,

टूटी चूड़ी के टुकड़ों से घाटी भी शरमाती है,

अरुणाचल वादी में बिखरी माटी भी शरमाती है,

सावन के अंधों को पर न दाग नज़र ये आएँगे,

चलो शहीदों के स्मारक पर एक दीप जलायेंगे।


सुमंगला सुमन

मुंबई, महाराष्ट्र