पेट की थैली

एक बार के लिए दोषी ने अपने पिता और पुत्र की ओर देखा और फिर जज कि ओर देखते हुए कहने लगा – हाँ मैं मानता हूँ कि मैंने अपराध किया है। गैर-कानूनी तरीके से अपने बाप-दादा की जमीन अपने पिता और पुत्र की अनुमति के बिना बेचना अपराध है। किंतु मुझे ऐसा अपराध करने का कोई पछतावा नहीं है। यह अपराध न्यायसंगत है। मैंने जीवन में इससे भी बड़े कई अपराध किए हैं। उन अपराधों के लिए पछतावा है, लेकिन इसके लिए कतई नहीं। 

मेरी सबसे पहली गलती यह है कि मेरा जन्म निम्नवर्गीय परिवार में हुआ। दूसरी गलती यह कि मैने शादी की। अधिक संतानों को जन्म देकर तीसरी गलती की है। अपने पिता की कमजोर पड़ती आँखों का इलाज करवाने की बजाय उनसे जमीन के कागजात पर धोखे से हस्ताक्षर करवाये, यह मेरी चौथी गलती है। मेरी पाँचवीं गलती यह है कि मैंने इकलौते बेटे की ऊँची पढ़ाई के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। सोचा इसकी शादी बड़े घराने में होगी तो बेटियों की शादी के लिए दहेज की चिंता नहीं सताएगी। 

उसके चक्कर में बेटियों के साथ अन्याय कर बैठा। मेरी छठी गलती यह है कि मैंने दहेज देने की असमर्थता के चलते अपनी बड़ी बिटिया की शादी ऐसे कसाई से कर दी जो उसे हर दिन मारता-पीटता था। एक दिन वह चल बसा। अब बिटिया विधवा बनकर घर में बैठी है। सातवीं गलती यह है कि दूसरी बिटिया अपने पैरों पर खड़े होकर दो-चार पैसे क्या कमा रही थी कि मेरे मन में लालच पैदा हो गया। कहीं उसकी शादी हो गई तो घर में आने वाली आमदनी बंद न हो जाए। 

इसीलिए मैने कभी उसकी शादी नहीं की। मेरी आठवीं गलती यह है कि मेरी तीसरी बिटिया प्रेम विवाह करके घर छोड़कर चली गयी तो मैं दुखी होने के बजाय खुश होने लगा। सोचा किसी तरह बला टली। मैंने नवीं गलती अपनी चौथी बिटिया की पढ़ाई बंद करवाकर की है। वह पढ़ने में अव्वल है। बोर्ड परीक्षा में पूरे जिले में प्रथम आयी थी। मैंने उसकी पढ़ाई यह कहकर बंद करवा दी कि तुम कहीं ज्यादा पढ़-लिख लोगी तो तुम्हारे लिए  पढ़ा-लिखा लड़का ढूँढ़ना होगा। 

पढ़े-लिखे लड़के यूँ ही थोड़े न मिलते हैं। भारी दहेज देना पड़ता है। जो कि मेरी हैसियत से बाहर है। मेरी दसवीं गलती यह है कि मैंने अपनी बहिन के विधवा हो जाने पर सहारा देने की बजाय उसे उसके हालात पर छोड़ दिया। वह बदन बेचकर अपने बच्चों का पालन-पोषण करने लगी। मैं यह सब जानते हुए भी चुपचाप बैठा रहा। मैं न एक अच्छा बेटा बन सका, न बाप। न भाई, न पति। यहाँ तक कि मैंने अपनी पत्नी को जीवन में एक बार भी भरपेट भोजन नहीं करवाया।

 लानत है ऐसी जिंदगी को। थूकता हूँ खुद पर। मैंने जमीन बेचकर एक छोटी सी झोपड़ी ली है और एक छोटा सा चाय का ठेला। ताकि जैसे-तैसे घर चल सके। निम्नवर्गीय लोगों के दिमागों में चिंताएँ और घर में असीमित इच्छाएँ पलती हैं। बेकाबू महंगाई और दुखों का भार हम जैसों के लिए अभिशाप है। पानी, दूध, बिजली, राशन, बेटी-बेटा, दामाद-बहू के खर्चे, बच्चों की पढ़ाई, त्यौहार, शुभ-अशुभ अवसरों पर पूजा-पाठ सब के लिए पैसों की जरूरत पड़ती है।

 घर में कमाने वाला मैं एक हूँ और बैठकर खाने वाले इतने हैं तो आप ही बताइए मैं क्या करूँ? यह जमीन मैंने अपने लिए नहीं, घर-परिवार के खर्चों के लिए बेची। इसलिए मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि आप मुझे जमीन बेचने के अपराध को छोड़ अब तक बताई किसी भी गलती के लिए सजा दीजिए, मैं भुगतने के लिए तैयार हूँ। - इतना कहता हुआ वह फफक-फफकर रोने लगा। न्यायालय में सन्नाटा पसर गया।    

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657