शादी डॉट कॉम

चश्मा आँखों पर कम नाक पर ज्यादा चढ़ा था। इससे साफ पता चलता था कि बंदा पढ़ा-लिखा था। ऊपर से सड़कों से ज्यादा माथे पर सिलवटों के स्पीड ब्रेकर साफ दिखाई देते थे। मतलब वह विवाह के लिए तैयार बिटिया का पिता था। गंवारों की बिटिया जितनी जल्दी बियाह दी जाती हैं, पढ़े-लिखों की बिटिया प्रोफाइल जीवनसाथी डॉट कॉम में उतनी ही देर तक लंबित रहती हैं। मनचाही मुराद और मिस्टर परफेक्टनिस्ट दामाद ये दोनों क्षितिज की तरह होते हैं। यानी ये दोनों भ्रम हैं।

एक दिन जीवनसाथी डॉट कॉम से फोन आया। फोन भी ऐसा आया कि जीवन डॉट से ज्यादा डाउट और साथी कॉम से ज्यादा कॉमा लग रहा था। पिता को साथी के साथ कॉमा पसंद था। चुनने के विकल्प जो मिलते थे, वहीं बेटी को अपने भविष्य को लेकर जीवन में बहुत डाउट थे। कुल मिलाकर पिता सुनहरे जीवन और बेटी बेजोड़ साथी की तलाश में जीवनसाथी वेबसाइट पर नाक रगड़ रहे थे। नाक रगड़ने का परिणाम यह हुआ कि बिटिया की उम्र तीस पार हो गई।

तीस पार की लड़की का पिता मनचाहा की जगह समझौता मिजाज हो जाता है। एक दिन एक रिश्ता आया। लड़का खूब पैसों वालों का इकलौता वारिस था, बालों के नाम पर गंजा कहलाता था। शहर में दो-चार कोठियाँ-दुकानें थीं, शरीर के नाम पर सिर और कमर के बीच पिजा-बर्गर का गोल गुंबज था। पानी के नाम पर थोक में कोक पीता था। लड़की समझ नहीं पा रही थी कि इस रिश्ते को जोक मानकर हँसे या शोक मानकर रोए। इसी जोक और शोक के बीच लड़की का पिता कूदा। बेटी को लड़के से अकेले में बात करने के लिए भेजा। शर्त यह थी कि लड़की कुछ नहीं कहेगी।  

हुआ वही जो होना था। लड़के को लड़की पसंद थी। लेकिन लड़की को लड़का नहीं। लेकिन पिता को अब इस बात की कोई परवाह नहीं थी। उसने बिटिया को समझाया – एक जमाना था शादी लडके और खानदान को देखकर की जाती थी, अब बैंक बैलेंस और कोठी देखकर की जाती है। दो दिन की चमड़ी के लिए चार दिन की संपत्ति थोड़े न छोड़ते हैं। उसकी सूरत और सीरत को छोड़ दौलत को देख। खुशियों की खुशबू दौलत के बगीचे में बसती है। कौनसा वह मूर्ख है जिसे तुझे कालीदास बनाना है। 

खुद इंटर पास है लेकिन नौकर-चाकर पीजी पास हैं। ज्यादा पढ़ने से कुछ नहीं होता। ज्ञान तो सड़क पर रोता है। ज्ञानी आज अज्ञानियों के यहाँ नौकरी कर रहे हैं। करोड़ में कितने शून्य होते हैं, यह पढ़ने-पढ़ाने और दिखावे की बाते हैं। तिजोरी में कितने रुपए हैं, वही हमारी औकात बताते हैं। लड़की संस्कार से मजबूर थी। पिता का कहा कैसे टालती? शादी हुए चार सा बीत गए हैं। न बच्चा है न कच्चा है। भविष्य के उत्तराधिकारी की बाट जोह रहे हैं।     

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657