नज़र-नज़र का फेर

मैं छह महीने पहले तक शादी-शुदा थी। अब विधवा हूँ। न जाने यह समाज क्यों विधवा को कटी पतंग की तरह लूटने के लिए लालायित रहता है। पति निकम्मा ही सही हवस के भूखों से बचाए रखने का लायसेंस होता है। मंगलसूत्र, सिंदूर, बिछुए मुझे यह याद दिलाते हैं कि मैं किसी के साथ बंधी हूँ। इसके न होने पर हर कोई मुझे यूज़ करने के बारे में सोचता है। पति के मरने के छह महीने तक मैं घर में ही पड़ी रही। कभी मेरी बहन तो कभी भाई और कभी पिता मेरे साथ रहते और मुझे इस दुख से उबारने का साहस देते।

यह दुनिया काम करने वालों को कभी फुर्सत नहीं देती। और जिनको फुर्सत देती है उनको काम नहीं देती। सो सभी मुझे छोड़कर अपने-अपने घर चले गए। अब मैं अकेली, सास-ससुर के साथ रहती हूँ। घर का पूरा काम मुझे ही संभालना पड़ता है। यहाँ पुरुष के लिए घूमने-फिरने के लिए चौबीस घंटे होते हैं, लेकिन स्त्रियों के लिए निश्चित समय होता है। शाम छह बजे से पहले लौट आने वाली स्त्रियाँ लोगों की नजर में चरित्रवान और अंधेरे में आने वाली पहले कानाफूसी और बाद में चरित्रहीनता का शिकार होती हैं। 

रात आठ बजे सामान लाने के लिए किराना की दुकान पर क्या गई भाभी कहने वाले लोगों की आँखों में कुछ और ही नजर आ रही थी। विधवा मतलब सजने-धजने, खूबसूरत कपड़े पहनने, मेहंदी लगाने, लिपस्टिक, पाउडर, काजल से दूर रहने का फरमान है। इस फरमान का कड़ाई से पालन करने पर भी मैं अपने ही कुछ अवयवों से हारी हूँ। ये अवयव एक समय खूबसूरती का कारक बनते हैं तो एक समय जीना दुश्वार कर देने वाले घातक शूल। दुकान पर जाने पर दुकानदार मुझे जानबूझकर रोकने के लिए सामान देरी से देने के लिए तरह-तरह के बहाने बना रहा है। मौका मिलते ही मुझे आँख मार रहा है। वह मुझे ऊपर से नीचे तक बार-बार घूर रहा है। मैं चाहती तो दुकान बदल सकती हूँ, लेकिन लोगों की नीयत बदलने की मेरे पास तरकीब नहीं है। सामान थमाते हुए उसने मेरे हाथ मिस दिए।

सड़क पर शराब की दुकान भी होती है। वहाँ से गुजर रही थी तो कुछ लोग मेरा भाव पूछने लगे। मैं नहीं जानती की रातों की कीमत क्या होती है? नम हथेलियाँ, भयभीत चेहरा लिए जैसे-तैसे शर्मिदगी और रंज का पसीना सूखने से पहले घर पहुँचना चार लोगों की कानाफूसी से बचने के लिए बहुत जरूरी था। तब भी हमारे घर के पास एक बढ़ई रहता है जिसकी पत्नी और बच्चे हैं, उसने कहा – “कभी हमें भी आपकी खातिरदारी करने का मौका दो।” मुझे पता नहीं कि कितनों ने मेंरी खातिरदारी की, लेकिन वह मुझे केवल एक शब्द कहकर चरित्रहीन बनाने पर तुला था। मेरी गलती बस इतनी थी कि कभी मेरे पति के कहने पर वह घर पर खिड़की की मरम्मत करके गया था।

एक और लड़का है जो मुझसे उम्र में पाँच साल छोटा है, उसे मैंने भाई कहकर राखी भी बाँधी थी, वह आज मुझे एक मोबाइल ऑफर करते हुए कहता है कि आप मेरे टच में रहना। मुझे अपने आप पर रोना आता है। मैं एक स्त्री हूँ और पुरुष को अधिकार है कि मुझे देखे, मगर ग़लती से मेरी निगाह उस पर पड़ जाए तो मैं आवारा और बदचलन कहलाऊंगी।

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657