एक अध्यापक की मौत

बड़ी मुश्किल से दो-तीन दिन हुए होंगे रामलाल को आदर्श अध्यापक का पुरस्कार मिले। पुरस्कार मिलने के बाद सब खुश होते हैं और यह जनाब दुखी रहने लगे। किसे पता था कि पुरस्कार उनकी जान पर बन आएगा। अब वे हमारे बीच नहीं रहे। पत्नी पछाड़ खाकर गिर गई। जैसे-तैसे उन्हें होश में लाया गया। पत्नी बार-बार पुरस्कार को कोसती। एक बार के लिए बाहर उठाकर फेकना भी चाहा, लेकिन घर के लोगों ने पुरस्कार का तिरस्कार करने से रोक दिया। इस पर पत्नी ने कहा, जब से यह मनहूस पुरस्कार आया तब से वो उखड़े-उखड़े से रहते थे। न ठीक से खाते न ठीक से सोते। रह-रहकर उठकर बैठ जाते। प्रशंसा पत्र में लिखी एक पंक्ति कि ‘यह पुरस्कार आपके अध्यापन के लिए दिया जा रहा है’, उसे बार-बार दोहराते। बड़बड़ाते। झल्ला उठते। अजीब सा बर्ताव करते थे।

रामलाल के शव के पास से एक पत्र मिला। लिखा थाः अनीला की अम्मा!

जब से यह पुरस्कार मिला है मुझे बेचैनी सी होने लगी है। मैं कुछ भी हो सकता हूँ किंतु अध्यापक कतई नही हो सकता। जब पहली से पांचवीं तक के सभी बच्चो को एक ही जगह बैठाकर पढ़ाना पड़ता है तब मैं अध्यापक नही चरवाहा लगता हूँ। जब कोई माता-पिता अपने बच्चे की पढ़ाई के बजाय दोपहर को बनी खिचड़ी की शिकायत करता है तो मुझे रसोइया होने का एहसास होता। बच्चों की कॉपी जांचने की जगह अरहर की दाल, सब्जियों की ताजगी और चावल में कंकड़ बीनने में व्यस्त हो जाता। तब मेरे भीतर का अध्यापक कब का मर जाता। खड़ियाँ लेकर बोर्ड पर सिखाने की जगह मैं जरूरी प्रोफार्मा भरने में अपनी उपलब्धि समझने लगता।  

पाठशाला में पाठ पढ़ाने के बजाय शौचालय की साफ-सफाई और रखरखाव करना मुझे सबसे जरूरी लगता। तब मैं सफाई कर्मचारी बन जाता। बच्चों के बनाए चित्र दुनिया को दिखाने के बजाय शौचालय के फोटो गूगल पर अपलोड करते हुए मेरे भीतर का अध्यापक घुट घुट कर मरने लगता। जाँच अधिकारी जब बच्चों की पढ़ाई के बजाय शौचालय, रसोई घर की जानकारी माँगते तब मेरे भीतर का अध्यापक शून्य हो जाता। पच्चीस साल की नौकरी में अध्यापन के सिवाय मैने सब किया है।

मुझे ठीक से याद नहीं कि मैंने आखरी बार बच्चों को कब पढ़ाया था। पाठशाला में कदम रखने के साथ ही ऑनलाइन बायोमेट्रिक उपस्थिति, छात्रों की उपस्थिति,ऑनलाइन बैंक अकाउंट, ऑनलाइन शौचालय के चित्र अपलोड करने और यह सब न करने पर समाचार पत्रों में अध्यापकों की बर्खास्तगी की खबरों के भय के बीच जमीर को मारकर जिंदगी जीना मेरे लिए भेड़चाल का हिस्सा हो गया था। सच कहूँ तो मेरे भीतर का अध्यापक तो कब का मर चुका था। अब मैं केवल अपने शरीर से विदा ले रहा हूँ। अपना और अनीला का ख्याल रखना।

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657