जंपिंग जपांग लाल

एक थे जे.जे.लाल। जे.जे. का वैसे तो मतलब जग जीत था, लेकिन जिस हिसाब से उन्होंने दल बदलें है, लोग उन्हें जंपिंग जपांग लाल पुकारते थे। जंपिंग जपांग लाल नेता क्या बने हर चार पैर वाली चीज़ उन्हें कुर्सी ही नजर आने लगी। नाम के अनुरूप इस दल से उस दल और उस दल से इस दल में गुलाटी मारकर राजनीति के ओलंपिक्स में नए कीर्तिमान स्थापित किए। उन्होंने निर्वाचन क्षेत्र के सरकस में मतदाता रूपी दर्शकों का खूब मनोरंजन किया।  फलस्वरूप उन्हें मंत्री पद मिला। उनके लिए दुनिया की सबसे प्यारी चीज़ कुर्सी है। 

कभी कभी तो उनकी कुदृष्टि बच्चों की स्टूल पर भी पड़ जाती। उनका दृढ़ विश्वास था बैठने के लिए चीज़ चाहे जैसी भी हो उसे छोड़ना नहीं चाहिए। वह क्या है न कि सत्ता के खेल में एक बार उठने वाला हमेशा के लिए उठ जाता है। वे हमेशा सबसे कहते फिरते, आप चाहे तो हमारी जान माँग लीजिए लेकिन कुर्सी हरगिज नहीं। इस तरह पानी की तरह अपना चरित्र रखने वाले जंपिंग जपांग लाल अलग-अलग सत्ता रूपी बर्तनों के अनुरूप अपना आकार ढाल लेते। ढालने और गुलाटियों के चलते उनकी रीढ़ की हड्डी कब की लुप्त हो चुकी थी।

एक दिन जंपिंग जपांग लाल सरकारी बंग्ले के अहाते में बैठे सुस्ता रहे थे। उनकी नजर एक बंदर पर पड़ी। वह बंदर इस घर से उस घर गुलाटी मारते हुए, कुछ देर सुस्ताते हुए इनके बंग्ले पर पहुँचा। कमाल की बात यह है कि बंदर जंपिंग जपांग लाल को देखते ही उड़न छू हो गया। उन्हें बंदर की यह हरकत पसंद नहीं आयी। बगल में खड़ी पत्नी उन्हें देखकर जोर-जोर से हँसने लगी। झल्लाए जंपिंग जपांग लाल ने हँसने का कारण पूछा तो पत्नी ने कहा, बंदर अपने बाप को देखकर नौ दो ग्यारह हो गया। जंपिंग जपांग लाल थोड़ा भड़के। कहा, तुम्हारी हँसी छूट रही है। तुम्हें पता भी यहाँ पहुँचने के लिए हमने कितनी गुलाटियाँ मारी हैं?  इतना कहने पर भी पत्नी की हँसी नहीं रुक रही थी। वह और हँसने लगी।

जंपिंग जपांग लाल ने पति का कवच उठा फेंका। नेताई ताव में कहा, झूठ को सच की तरह और सच को झूठ की तरह पेश करना पड़ता है, तब कोई यहाँ तक पहुँच पाता है। जोड़नेवाले लोगों को तोड़कर और तोड़नेवाले लोगों को जोड़कर साथ चलना पड़ता है, तब कोई यहाँ तक पहुँच पाता है। सपने दिखाकर बकरों को और घोड़ा बताकर गधों को रिझाना पड़ता है, तब कोई यहाँ तक पहुँच पाता है। चुनाव से पहले लोगों के पैरों पर और चुनाव के बाद सिर पर चढ़ना पड़ता है, तब कोई यहाँ तक पहुँच पाता है।

 बिना योग्यता के बुद्धिजीवियों को और पूरब के बजाय पश्चिम से सूरज उगाना पड़ता है, तब कोई यहाँ तक पहुँच पाता है। पाँच साल कुछ न करना और फिर खिखियाते हुए बेशर्मों की तरह लोगों का सामना करना पड़ता है, तब कोई यहाँ तक पहुँच पाता है। थूके को चाटना और मूते को पवित्र जल समझकर खुद पर छिड़कना पड़ता है, तब कोई यहाँ तक पहुँच पाता है। बात-बात पर अपमानित और कदम-कदम पर चप्पल-जूते से सम्मानित होना पड़ता है, तब कोई यहाँ तक पहुँच पाता है। तुम्हारी तरह बत्तीसी दिखाकर खी-खी हँसने लगूँ तुम गाँव में चौका-बेलन और मैं बैलों को चराता फिरता। यह सब सुन पत्नी वहाँ से रफू चक्कर हो गयी थी।

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657