'जीवन का सत्य'

"जीवन ईश्वर का दिया अनमोल उपहार है, ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना इंसान है। इंसान को अगर जीना आए तो ज़िंदगी जश्न है, पर समझ न आए तो बिहड़ घना जंगल है"

इंसानी जीव का अवतरण एक जंग है। जीवन से शुरू होते मृत्यु को गले मिलने को उम्र कहते है, उम्र एक सफ़र है। इस सफ़र में एक जीव की पहली साँस संघर्ष का आगाज़ करती ज़िंदगी से टकराती है। उसकी पहली सिसकी अपने वजूद को संभालने के दाव आज़माती है। इंसान को जन्म लेते ही झंझा से जूझते गति करना है। हर हाल में आरोह-अवरोह से चलायमान जीवन के कंटीले रास्तों को कंड़ारते। नहीं जानता जीव की जीवन संघर्ष है।

कल्पक सा ईश बहा तो देता है जीवन की बावड़ी में। माँ की कोख में महफ़ूज़ होती है जान। जन्मते ही कट जाती है नाड़ ममता की चौखट से बिछड़ कर चुनौतियों के बिहड़ जंगल में भटक जाता है जीव। पर अपक्षरण होने से पहले हर अनुक्षण को हौसलों के दम पर निरंतर लड़ना होगा।

 जीवन के तीन पड़ाव बचपन, जवानी और बुढ़ापा आमरण आख़री साँस तक उन्मुक्त उल्लास को पाने के लिए जुनून की लालसा पालते इन तीनों से जूझना ही जीवन है। ज़िंदगी की रानाइयां पहचाननी होगी। खुशियों के गौहर चुनकर हर लम्हों को समेटना होगा। जीना तो होगा, सपनों के केनवास में रंगीन रोशनी भरनी होगी। एक कश्मकश भरे सफ़र को आसान करते। ऊँगली खुद की थामें अपनी ही आगोश को सहारा मानते हंसना, मुस्कुराना होगा।

जगत घट में सुरा पी कर लयमान होते। विषम हलाहल कंठ में भरकर खुमारी से जीना होगा। दुभेद्य वनों का पेड़ नहीं बनना पेड़ों का अर्थ बनकर उभरना होगा। समय स्वयं नहीं बदलेगा खुदको खुद का समय बदलना होगा। त्राहि-त्राहि से जीवन में सख्त नीड़ का निर्माण करना है। पल सके जिसमें इरादों का तप ऐसा जाल बुनना होगा। ज़िंदगी की ध्वनि सुनाता उषा-निशा का चक्र अनवरत चलता है इंसान के आस-पास। उस ध्वनि के ताल में प्रतिध्वनि बन ढ़ल जाना होगा।

 जद्दोजहद कश्मकश असमंजस की स्थिति से उलझते जीवन मृत्यु की गोद में सर रखकर सोने ज़िंदगी में विभिन्न विसंगतता होने के बावजूद हर जीव मोहाँध है ज़िंदगी के प्रति। ज़िंदगी आनंद है, सपना है, चुनौतियों की खान है जिसमें उलझते हर कोई उम्र काटते अपना असली मकसद भूल जाता है। आख़री पड़ाव पर याद आता है अरे मुझे तो खुद को पाना था वजूद को तलाशना था। 

क्या मुँह दिखाऊँगा ईश्वर को, डर जाता है जीव क्योंकि, सिने के भीतर फ़डफ़डाती धुरी में अरमानों का तेल सिंचते उम्मीदों के पंख पाकर जीवन आकाश की रेत पर चलते पदचिन्ह छोड़ कर जो जाना है। जहाँ बावड़ी बदल जाएगी चार कँधों की चटाई पर सोते मौन की गुफ़ा में मौज करते वापस ईश की गोद में खेलने रूह को चोला बदलना होगा ज़िंदगी के सफ़र को जीते वापस शून्य में ढ़लना होगा। जात-पात, धर्म को परे रखकर ज़िंदगी जी लो हंसी-खुशी ज़िंदगी नहीं मिलती दोबारा।

भावना ठाकर 'भावु' बेंगलोर