कृष्णा जन्माष्टमी विशेष: जनमानस को विश्वशांति का पाठ पढ़ाया श्रीकृष्णचंद्र ने

          हमारा भारतवर्ष सदैव संत-ज्ञानी व कर्मयोगियों की भूमि रही है। तभी तो यहाँ ज्ञान का सरोवर हिलोरें मारता है। लोगों में सजन्नता की आभा झलकती है। एक खासियत है मेरे भारत की कि जिस किसी शख्स की बाल्यावस्था योगाभ्यास में बीतती है, उसकी किशोरावस्था में तप व त्याग द्रष्टव्य होता ही है। यौवन कर्मयोग से भरा होता है। जरावस्था की नसीहतें मानवता को सुदृढ़ करती है। इसी परिप्रेक्ष्य में मैं एक ऐसे युगपुरुष का जिक्र करने जा रहा हूँ, जिन्होंने अखिल भुवन में अपनी एकछत्र प्रधानता कायम रखी; और वे हैं द्वापरयुग-शिरोमणि युगधाम योगेश्वर श्री कृष्णचंद्र जी।

विषम परिस्थिति में जन्मा बालक कृष्ण : 

          बालक कृष्ण का जन्म भादो मास के कृष्णपक्ष के अष्टमी तिथि के मध्यरात्रि दिवस बुधवार को मथुरा नरेश कंस के कारागार में हुआ। देवकी-वसुदेव का यह आठवाँ पुत्र बड़ा ही विलक्षण बालक था। शैशवास्था से अंत तक कृष्ण का चमत्कारिक जीवन रहा। प्रतिकूल परिस्थिति में जन्मा बालक कृष्ण का "क" वर्ण से विशेष सम्बंध रहा है। 

       "कालीरात कृष्ण कंस का कारागार।

        कालिंदी का कृष्ण नीर रहा अपार।।"

विस्मयपूर्ण बालपन :-

          एक सम्पूर्ण बालजीवन-चरित कृष्ण के बचपन में देखने को मिलता है; कई दानवों का उनके द्वारा किया गया वध इस बात का साक्ष्य है। बालक कृष्ण के भोलेपन, शरारत व वत्सल का संतकवि सुरदास ने बखूबी चित्रण किया है। बालकृष्ण का मिट्टी खाना और अपनी माता यशुमति को अपने मुख में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का दर्शन कराना एक विस्मयकारी तथ्य है। कृष्ण के बालहठ से पूरी दुनिया अवगत ही है।

       "मैया मैं चंद्र खिलौना लैहौं

        जेहौं लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं।

        सुरभि कौ पय पान न करिहौं, बेनी सर न गुथैहौं।

        ह्वै हौं पूत नंद बाबा को, तेरी सूत न कहेहौं।।"

कृष्ण की अविरल प्रेमधारा :

          कृष्णजीवन में सदैव आध्यात्मिक प्रेम की अविरल धारा बहती रही है। उसका पावन बालहृदय ही प्रेम का स्रोत रहा; तभी तो ब्रज की गोप-ग्वालिन या वृषभानुकन्या राधिका पर उसका अमिट व निश्छल प्रेम झलकता है। आज के प्रेम की तरह "हाय...और हलो..." से शुरू नहीं हुआ कृष्ण-गोपियों का प्रेम। प्रेमासक्त कृष्ण की हालत द्रष्टव्य है-

          "नारद ते शुक-व्यास रटै, पचि हारे तऊ पुनि पार न पावै।

          ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भर छाछ नाच नचावै।।"

छत्तीसगढ़ी लोकमानस में कृष्ण :

          हमारे छत्तीसगढ़ी जनमानस में कृष्ण का बालपन रचा-बसा हुआ है। यहाँ एक बच्चे को कान्हा और मात-पिता को नंद-यशोदा की संज्ञा प्राप्त है। मानवजन्म संस्कार के अंतर्गत नवजात शिशु व जननी को सुख-समृद्धि की  शुभकामनाएँ देते हुए लोग "सोहरगीत" गाते हैं। सोहरगीत की एक बानगी प्रस्तुत है -

          "भादो महीना के अंधियारी पाख म

           हो ललना....

           आठे अधरतिया प्रभु लिये 

           अवतार हो...."

          छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में कृष्ण के बचपन व यौवन का जिक्र राऊत के दोहे, फागगीत, सुवागीत, व बारहमसी-श्रृंगारिक गीतों में होता है। एक जनानागीत में कृष्णचरित अधोवर्णित है -

          "अई हो...हो...हो....

          तोर नानचुक कन्हइया यसोदा

          अड़बड़ धूम मचाथे...या....

          दही ल खाये बर खाथे 

          मटकी ल फोर देथे

          वोला कही देना या... समझई देना या...

            तोर नानचुक कन्हइया....।"

एक विलक्षण नवकिशोर कृष्ण :

          मथुरा के एक अधर्मी व अहंकारी राजा अपने मामा कंस का महज़ बारह वर्ष की आयु में वध कर कृष्ण ने अपनी विलक्षणता का परिचय दिया। अपने बड़े भाई दाऊ बलराम के साथ गुरू संदीपनि के आश्रम से विद्या ग्रहण कर संसार को जीवन में गुरू की महत्ता का संदेश दिया। अवगत हो, विद्या ग्रहण अवधि में ही श्रीकृष्ण-सुदामा की मैत्री अंकुरित हुई। दोनों का कारुणिक साख्यभाव जगजाहिर है।

          "देखि सुदामा की दीन दशा,

                करूणा करिके करुणानिधि रोए।

           पानी परात को हाथ छुयो नहीं,

                     नैनन के जल सो पग धोए।"

शांति व कर्म पर दिया जोर :

          श्रीकृष्ण ने जीवनपर्यंत संसार को विश्वशांति का पाठ पढ़ाया। कर्मप्रधानता की शिक्षा दी; साथ ही धर्म व कर्म में भी सामंजस्य बनाये रखा। उचित अवसर आने पर धर्म और कर्म का एक ही जीवनोद्देश्य की बात बताई। इसीलिए उन्होंने कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन से कहा -

         "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु

         कदाचन।

         मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते

         संगोस्त्वकर्मणि।"

अनश्वर आत्मा का जिक्र :

            श्रीकृष्ण को उनके धर्म, कर्म एवं योग के आधार पर असाधारण प्रतिभा की प्राप्ति हुई; और उन्हें भगवान का दर्जा मिला। फिर उन्होंने आत्मा और परमात्मा के सम्बंध में स्पष्ट किया कि आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है। शरीर को नश्वर बताया। आत्मा की अमरता का जिक्र किया। 

           "नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि,

           नैनं दहति पावक:।"

           न चैनं क्लेदयन्त्यापो,

           न शोषयति मारुति:।"

दैविक पुरुषत्व का स्वामी :

          श्रीकृष्ण ने स्वयं को संसार में एक अलौकिक दिव्य पुरुष के रूप में स्थापित किया। उन्होंने स्वयं को परमात्मा बताया। पूरी दुनिया को सबमें स्वयं का व स्वयं में सबका होने का रहस्य समझाया। उन्होंने बताया कि सृष्टि का सृजन एवं विनाश उनके ही द्वारा होता है। स्वयं को अनश्वर होने की बात कही। सांसारिक आवश्यकतानुसार श्रीकृष्ण ने स्वयं का संसार आगमन-प्रस्थान की बात बताई।

          "यदा यदा हि धर्मस्य 

                ग्लानिर्भवति भारत।

          अभ्युत्थानमधर्मस्य 

             तदात्मानं सृजाम्हयम्।

          परित्राणाय साधुनां

             विनाशिय च दुष्कृताम

          धर्मसंस्थापनार्थाय

               सम्भवामि युगे युगे।।"

            

टीकेश्वर सिन्हा "गब्दीवाला"

व्याख्याता (अंग्रेजी)

घोटिया-बालोद (छत्तीसगढ़)

सम्पर्क : 9753269282.