रिसती है जब स्मृतियाँ आंखों से

रिसती  है  जब स्मृतियाँ आंखों से 

घने कोहरे का उद्गार नजर आता है। 

बिखरे, टूटे मन के प्रांगण में 

दुखों का अंबार नज़र आता है।। 


झड़ता बसंत मृदु स्वप्नों से

एकांतता का भाव सिमट आता है। 

बाग - बगीचे, फुलवारी, कानन में 

कांटों का बस गुबार नज़र आता है।। 


सत्य, विश्वास ओझल आकांक्षाओं से 

मिथ्याओं का बाजार नज़र आता है। 

धुआँ -  धुआँ  है सब तरफ 

छल का कारोबार नज़र आता है।। 


दृष्टि देखती अनंत लीलाएं 

पर कुछ ना नज़र आता है। 

एक तेरी सूरत के सिवा कान्हा 

कोई और ना हृदय को भाता  है।। 


- वंदना अग्रवाल 'निराली'

लखनऊ, उत्तर प्रदेश