पर्वतों की शाम

शहरों के कोलाहल से दूर,

पर्वतों की शांत सुरमई शाम,

चिर वेदना को हर लेती,

मोहक और नयनाभिराम।


निज गृह को लौटे चराचर,

शांत स्मित शैल शुभंकर,

श्रांत हुआ अब द्रुमदल,

उदित शशि भानु का विश्राम।


सुखद स्वप्न दृग मुक्ताहल,

अलसाया सुमन सुकोमल।

लौह वर्ण का नभ वितान,

तंद्रिल पलकें अब निशि थाम।


         रीमा सिन्हा (लखनऊ)