ग़ज़ल

हाथों से ख़ुदा के ही वरदान निकलते हैं

जब गूँथते वो मिट्टी इंसान निकलते हैं

फौजी मेरी माटी के उर तान निकलते हैं

ललकारे अगर दुश्मन फिर बान निकलते हैं

शाहीं सी नज़र इनकी सैनिक है ये भारत के

जाँ देगें या जाँ लेंगे ये ठान निकलते हैं

विश्वास न कर इन पर ये खुद को भी हैं छलते 

इंसाँ के नक़ाबों से शैतान निकलते हैं

मज़हब के ही नामों पर हर सर को कलम कर दो

नफरत की दुकानों से फ़रमान निकलते हैं

गर दिल में रहे श्रद्धा विश्वास की हो पूजा

पत्थर की भी मूरत से भगवान निकलते हैं

प्रज्ञा देवले✍️