पितृ को नमन

जो चले जाते हैं 

वाकई में  वो  रहते हमेशा

हमारे स्मृतियों में 

उनके चश्मा और घड़ी 

आते जाते पड़ती नजर 

उनके बैठक और बिस्तर पर 

उनकी आकृति उभर आती 

जैसे वह हंस रहे हो 

कभी लगता बुला रहे हैं 

कानों में आवाज भी आती है 

उनकी पसंद का खाना बने 

और जिक्र ना हो उनका 

ऐसा हो सकता है भला 

धनिया पत्ती लाने भी 

5 किलोमीटर चले जाते 

और चटनी बनाओ तो कहते 

मिक्सी में मत बनाओ सील पर पीसो 

लगता है जैसे कान में कह कर चले गए 

सशरीर वह नहीं है विद्यमान 

आंखें भी हो जाती है नम 

उनकी याद किसी धरोहर से नहीं है कम 

अपने कर्तव्यों से भले हम  चूक जाएं

 पर वह अपना फर्ज शायद ही वो भूल पाये 

 पितृ पक्ष के रूप में होता उनका पुनः आगमन  

अदृश्य होकर सदैव करते हमारा चिंतन 

पितरों को जल डालना लगता हमे एक बहाना  

वह तो आते हैं, कैसे हैं हम? यह रहता उनको जानना 

वह कहां हमसे दूर हैं, हम जो उनके प्रारूप हैं 

लगता है काश - काश वह सशरीर होते विद्यमान 

तो जिंदगी कितनी होती आसान 

तुम्हारे कुल के हम हैं  नंदन 

करते  तुम्हारा अभिनंदन 

करबद्ध करते  तुम्हें 

हम सब शत-शत नमन.


सविता सिंह मीरा 

झारखण्ड 

जमशेदपुर