अलग-अलग भावों को समेटती कविताएँ


‘लड़ाई जारी है’ संतोष पटेल का हाल ही में प्रकाशित काव्य संग्रह है. इसमें कुल 58 कवितायेँ शामिल की गई हैं. सभी कविताओं में अलग-अलग भाव परिदृश्य को शब्दों में ढाला गया है. अधिकांश कविताओं में तत्कालीन यथार्थ को उकेरा गया है. इस कविता संग्रह की पहली कविता ‘माउन्टेन मैन दशरथ मांझी’ पर रची गयी है. इसमें दशरथ मांझी के कठोर श्रम, फगुनी के प्रति निश्छल प्रेम और उसकी याद में पहाड़ का सीना चीर कर मार्ग बनाने की दास्ताँ काव्यात्मक लहजे में उकेरी गयी है. यहाँ जो दशरथ मांझी है वह उस लोक का राजा है, जहाँ उसका प्रेम व्यक्तिगत न रह कर जनसाधारण के लिए हो जाता है. होने को यह भी हो सकता था कि फगुनी की मृत्यु के पश्चात् दशरथ मांझी निराश होकर कर्म का पथ त्याग देते. किन्तु उन्होंने पूरे लोक को उस पीड़ा से मुक्ति दिलाई जो उन्हें लम्बी दूरी तय करने की विवशता के कारण होती थी. इस कविता में रचनाकार ऐसी कर्मठता को सलाम करते हैं.
रचनाकार स्त्री-पुरुषों की बराबरी के पक्षधर हैं. ‘और वर्षों पुरानी परंपरा टूट गयी’ कविता धर्म के खोखले हिस्से पर चोट करती है. मनुष्य पैदा तो स्त्री के गर्भ से होता है पर वह स्त्री को ही अपवित्र ठहराने लगता है. जिस रक्त से उसकी रचना होती है, उसे ही अपवित्र बताना धर्म और सत्ता के ठेकेदारों की मानसिक अवस्था और उनकी कुत्सित बुद्धि को दर्शाता है. ‘संवेदना बेचना’ कविता उन लोगों पर प्रश्न करती है जो एक समय स्वयं किसी की संवेदना के मुंहताज थे. समाज में आज भी बुरी तरह बच्चियों का शोषण वहशी ढंग से जारी है. उनके प्रति संवेदना व्यक्त करने का दायित्व उनका भी है, जो कभी इस दौर से गुजर चुके हैं. ‘आनर किलिंग’ कविता समाज में रोंगटे खड़े करने वाले कृत्य पर प्रश्न करती है. कुंठा के शिकार लोगों ने मनुष्यता को जाति, गोत्र आदि बंधनों में जकड़ लिया है. वे इस बंधन को बनाये रखने के लिए प्रेमियों की नृशंस हत्या तक कर देते हैं. कितनी बड़ी विडम्बना है कि इस हैवानियत कृत्य को वे आनर किलिंग का नाम देते हैं. रचनाकार का प्रश्न है कि क्या हत्या भी कहीं सम्मान का सूचक बन सकती है? ‘फिर तुम ही जनो’ कविता बेबाक लहजे में पुरुषों द्वारा की जा रही धर्म की ठेकेदारी को चुनौती देती है. ‘अगर स्त्री अपवित्र है तो फिर तुम ही जनो’ पंक्ति पुरुषों के सामर्थ्य की पोल खोल देती है.
कवि को गरीब, किसान, मजदूर, वर्षों से शोषित लोगों की पीड़ा सोने नहीं देती. आजादी के इतने वर्षों के पश्चात् भी गरीबों, किसानों की समस्याओं में बहुत सुधार नहीं हुआ है. सरकारी नीतियों और तमाम दावों के बावजूद भूख, गरीबी, निराशा के तले लोग दबे हैं. गरीब अपने बीमार परिवार को लेकर पलायन करने के लिए विवश हैं. ‘एक चिड़िया’ कविता एक ओर रौंदी जा रही प्रकृति की झलक लेकर आती है तो दूसरी ओर इसके माध्यम से रौंदी जा रही बेटियों की दर्दनाक स्थिति को उकेरा गया है. आये दिन बेटियां हत्या का शिकार हो रही हैं. कुछ नहीं होता उसके बाद. जो आवाज मुखर करते हैं वे तन्त्र के द्वारा कुचल दिए जाते हैं. फिर भी रचनाकार क्रांति की आस नहीं छोड़ते. ‘खाली करो जंगल’ कविता जन्म से जंगल में रह रहे मूल निवासियों के खदेड़े जाने से क्षुब्ध है. जंगल के रखवालों को उनके आवास से भगाए जाने के पश्चात् उनके गुलाम बनाये जाने का सिलसिला शुरू हो जाता है. वे गठरियों में अपना सामान लादे, अपने कुनबे के साथ दर-दर भटकते हैं. भूख की लाचारी उनके शोषण का रास्ता खोल देती है. उनकी बेटियों की तस्करी आसान हो जाती है. यह कविता लोगों की जालसाजी की बखिया उधेड़ती है. ‘अग्नि’ शीर्षक कविता बाजार की क्रूरता को उकेरती है. भूखे इंसानों को जोकर का रूप धरने पर मजबूर करता है बाजार. पेट की आग की तपिश के आगे कमजोर पड़ जाती है सूरज की आग. क्रूर कार्पोरेट जगत सामान्य मनुष्य की बेबसी का फायदा उठाता है. ‘जननायक’ कविता ट्रेन में पिसते आदमी की दास्ताँ है, जो अपने माँ-बाप, पत्नी की छोटी सी ख्वाहिश के सपनों में खोया रहता है और भूल जाता है कि वह ‘जननायक’ ट्रेन की भीड़ में दबा है. ‘एक गिरमिटिया का हिन्दू बन जाना’ कविता भावधारा को इतिहास की ओर मोड़ देती है. गुलाम बना कर विदेशों में बेचे गए लोग अभी भी हिन्दू बनने की चाह रखते हैं. देश से दूर रहने पर उनकी भावनाएं हिन्दुस्तान से मिलने की चाह रखती हैं. रचनाकार छली, कपटी लोगों से प्रश्न करते हैं. अगली कविता ‘क्या यह अपराध नहीं’ में कवि सवाल करते हैं धर्म के उन ठेकेदारों से, जो समाज के एक हिस्से को पशुओं से भी बदतर जिंदगी जीने पर मजबूर करते हैं. दरअसल, धर्म की आड़ में यह अपराध है. केश बढ़ाने के लिए कर, स्तन ढंकने के लिए कर, घोड़ी चढ़ने पर हत्या, अपने बच्चों का सुन्दर नाम रखने पर उनकी आपत्ति, क्या यह भयंकर अपराध की श्रेणी में नहीं आता. रचनाकार का प्रश्न शोषणकारी, अमानवीय व्यवस्था से है. ‘जन्मों की व्याख्या’ कविता धोखेबाजों की बखिया उधेड़ती है. ‘निरपेक्ष’ कविता में जाति निरपेक्ष होने की बात कही गयी है. ‘जाति’ कविता में मनुष्यता बचाए रखने के लिए जाति का जाना आवश्यक माना गया है. ‘नव दलित’ कविता वर्तमान समय के मंजर को उकेरती है. दलित व्यक्तियों का समुदाय हमेशा से अमानवीयता और घृणा का शिकार रहा है. बाबा साहेब के अदम्य परिश्रम और संघर्ष की बदौलत उसे मनुष्य होने का दर्जा मिला.
इस कविता संग्रह में राजनीति पर भी खूब व्यंग्य किया गया है. इस विषय पर कई कविताएँ हैं जो उसके खोखलेपन को उजागर करती हैं. ‘जूता’ शीर्षक कविता जूते से शुरू होकर राजनीति को आईना दिखाने वाली कविता है. लोभ, छल-प्रपंच से आप्लावित राजनीति पर करारा व्यंग्य है यह कविता. धन और मद में अंधे राजनयिक की औकात इस कविता में बेबाक उकेरी गयी है. जूता अपने तैयार होने से लेकर प्रयोग (जूतम पैजार) तक आते-आते तमाम क्षेत्रों की बखिया उधेड़ देता है. ‘रेट तय है’ कविता राजनीति के ही विद्रूप चहरे को सामने लाती है. चुनावी मौसम में रेट तय है. गरीबों का रेट तय है. मजदूर, गरीब भूख से लाचार हैं. राजनीति करने वाले लोग खोखले दावे करने के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि बदलाव की आस मिट चुकी है. गरीबों को जैसे मालूम हो गया है कि उनकी स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता. वे जुलूस, भीड़, पदयात्रा आदि में भीड़ बनना स्वीकार कर लेते हैं. किसी पार्टी से कोई लेना-देना नहीं, चंद पैसों के खातिर वे भीड़ बन रहे. चुनावी मौसम में उनका रेट तय है. ‘गायब हैं’ कविता भी चुनावी जुमलों की पोल खोलती है. चुनाव के पहले और बाद की स्थिति पर इस कविता में तंज कसा गया है. वोट की खातिर दिखाए गए मुंगेरीलाल के सपने सत्ता हासिल करने के बाद गायब कर दिए जाते हैं. सत्ता हासिल कर लेने के पश्चात् मुद्दे, जिन पर वोट माँगा गया होता है, वे अगले पांच साल के लिए ठंडे बस्ते में रख दिए जाते हैं. ‘रैली’ कविता भी इसके मुखौटे को उतार कर रख देती है. दो वक्त की रोटी के खातिर बेबस, भूखे लोगों का हर रैलियों में दौड़ना आहत करता है. जन साधारण इन रैलियों के आयोजकों द्वारा गुलाम बना लिया गया है. ‘सन्धि’ कविता सत्तापरस्त लोगों को बेनकाब करती है. राजनीति में एक सांपनाथ है तो दूसरा नागनाथ. ‘नारा’ कविता भी आज के चुनावी जुमलों को बेनकाब करने वाली कविता है. आजादी के पहले नारों का उद्देश्य महान था. आज के नारे छल-कपट का माध्यम भर रह गये हैं. ये नारे वोट लेने का माध्यम भर हैं, सत्ता हासिल कर लेने के बाद गरीबों का खून चूसने का माध्यम हैं ये नारे.
‘मुख्य धारा बनाम सोशल मीडिया’ कविता समाज में फैलाये जा रहे फर्जी खबरों के खिलाफ है. सत्ता के भूखे लोगों ने जन साधारण को गुमराह करने के लिए ऐसी व्यवस्था बना डाली है, जिससे उन तक सत्य कभी पहुंचे ही नहीं. हर ओर जाल बुना गया है, जो अदृश्य है. वह हमारे हाथों में पड़ी तकनीक है. जिस पर अमीरों का नियंत्रण है. अमीर भूखे पेट विवश जीवन जीने वाले लोगों को उसके भूखे पेट के फायदे तक बता देते हैं. यह कविता उस लोकतंत्र के चौथे खम्भे पर विश्वास करने की बात करती है, जिसमें सत्ताधारी का महिमा मंडन, चाटुकारिता नहीं थी. जो गरीबों के लिए भी था. आज कुछ लोग गरीबों की बस्ती में अमीरों की चापलूसी का तामझाम दिन रात परोसते हैं. इस कविता में ऐसे लोगों के प्रति धिक्कार की गूंज है. ‘बिन पेंदी का लोटा’ कविता ऐसे लोगों को बेनकाब करती है, जो महज अपने स्वार्थ से लिपटे होते हैं. अपने कुकर्मों को छुपाने के लिए अपनी जमीर पर कालिख पोत कर इधर-उधर लुढ़कते हुए पूरी बेशर्मी के साथ जीवन जीते हैं. कवि उन ‘एन आर आई’ लोगों पर व्यंग्य करते हैं, जो सुख-संपत्ति की चाह में कहीं और के हो गये. वे लोग अपनी सेलेरी भारतीय मुद्रा में बताते हैं, ताकि वह भारी-भरकम लगे. ऐसे लोगों को देश की धूल-गर्द नापसंद है. बाहर रहकर वे ज़बानी देशभक्ति दिखाते है. उन्हें अपने आदिवासियों का दर्द ज्ञात नहीं. उन्हें हाशिये पर रहने का दर्द नहीं मालूम. उन्हें देश की विविधता से कोई लेना-देना नहीं.
कवि कर्म को प्रमुख मानते हैं. ‘मुझे जो घंटियाँ पसंद हैं’ में कबीर के कर्म प्रधान विचार की झलक मिलती है. रचनाकार भाग्यवादी नहीं है, वे कर्म पर विश्वास करते हैं. पाखंड, अन्धविश्वास के प्रति उनका कोई झुकाव नहीं है; उन्हें तो श्रम और कर्म की प्रधानता वाले हाथों और उनके द्वारा सामान बेचते वक्त बजाई गयी घंटियाँ आकर्षित करती हैं. वे विविध भावों को अभिव्यक्त करते हैं. ढेरों ऐसी भावनाएं जो कविता बन कर फूट पड़ती हैं. ‘क्यों ढोऊं दुश्मनी के भार को’ में रचनाकार हर बात से ऊपर इंसानियत के महत्त्व को स्वीकार करते हैं. व्यक्ति चाहे जैसा भी हो अंततः वह एक मनुष्य ही होता है, इस बात को कोई झुठला नहीं सकता. ‘फिर युद्ध क्यों’ कविता बेहतरीन कविताओं में से एक लगी. युद्ध समर्थक लोगों के मन में युद्ध देखने की चाह शायद इसलिए होती है; क्योंकि वे खुद युद्ध नहीं लड़ते. सोशल मीडिया पर, न्यूजरूम में, स्टेज पर युद्ध की मांग करने वाले लोगों के घर-परिवार का कोई सदस्य शायद युद्ध लड़ने नहीं जाता. हर युद्ध के बाद वही संधि, वही हस्तक्षेप, आखिर अंत में मानवतावादी विचार काम आते हैं तो फिर युद्ध क्यों? युद्ध करने से पहले एक सैनिक के माँ-बाप, पत्नी और बच्चे से तो पूछिए कि क्या वे सच में युद्ध चाहते हैं अथवा नहीं. उस सैनिक की आँखों में झांक कर तो देखिये.
यह निर्विवाद है कि पहली शिक्षिका माँ होती है. इसी भाव को उकेरती है ‘पहली शिक्षिका’ कविता. माँ को स्कूली शिक्षा भले ही न मिली हो लेकिन, वह ज्ञान और अनुभवों की अकूत भण्डार होती है. वह अपनी संतान को स्वाभिमान और बराबरी जैसे शब्दों का अर्थ समझाती है. ‘गोधूली’ कविता में मार्मिक ढंग से वृद्धों की दशा को उकेरा गया है. वृद्धों को वृद्धाश्रम में छोड़ दिया गया है और गाड़ियों में युवक-युवतियां कुत्तों को गोद में लेकर घूमते हैं. ‘टूटती सांसे’ कविता टूटते रिश्तों की पीड़ा उकेरती है. कवि इस बात से बेहद दुखी हैं कि आज परिवार अपने-आप में सिमटते जा रहे हैं. समाज एकल परिवार प्रधान हो गया है. संयुक्त परिवार लगभग समाप्त से हो गये हैं. घर टूट रहे हैं. संवेदनाएं धीरे-धीरे जैसे ख़तम हो रही हैं. ‘हम दो हमारे दो’ नारे के बीच वृद्ध माँ-बाप के रहने की समस्या खड़ी हो गयी है. लोभ और बाजारवादी युग में लोग अपने माँ-बाप को भी साथ रखने से कतरा रहे.
‘अन्य में उधृत कवि’ शीर्षक कविता मुख्य धारा से अलग कवियों की बात करती है. ये कवि बड़े नाम वाले नहीं होते, किन्तु यह सत्य है कि क्रांति व लोक की महक इनकी रचनाओं में अवश्य समाई रहती है. ‘शब्द’ कविता में शब्दों की ताकत को उकेरा गया है. शब्दों से सुविधापरस्त लोग डर जाया करते है. ‘ज्ञानी’ कविता मंचासीन लोगों पर व्यंग्य करती है, जो अपने करीबी जनों को ज्ञानी की उपाधि देते नहीं अघाते. बहुजन की प्रतिभा, उनकी योग्यता कहीं खो सी जाती है. ‘लाचार’ कविता एकालाप सी प्रतीत होती है. गहरे दुःख में होते हुए, कुछ न कर पाने के कारण हताश मन एकालाप करने लगता है.
18 वीं कविता ‘प्रेम करना इतना आसान नहीं’ में कवि बताते हैं कि यह इतना आसान होता तो मानव मानव को ही गुलाम नहीं बनाता, उन पर अत्याचार नहीं करता. 23 वीं कविता ‘प्रेम’ में साधारण से असाधारण बनाने की ताक़त है. प्रेम दुनियां की सर्वश्रेष्ठ कृति है लेकिन यह ज्यादातर मनुष्यों की समझ से परे है. ‘कुंठा’ कविता भावों को शब्द देती है. ईर्ष्या, द्वेष, अवसाद से उपजी कुंठा जितनी उस व्यक्ति के लिए खतरनाक है, उतनी ही आस-पास के लोगों के लिए भी. कवि को ऐसे व्यक्तियों पर तरस आता है. ‘राजनीति साहित्य की’ कविता साहित्यिक क्षेत्रों के अवार्ड, पुरस्कार आदि की राजनीति से परिचय कराती है. पुरस्कार से न कोई बड़ा होता है न छोटा. उत्तम विचार किसी पुरस्कार के मोहताज नहीं होते.
‘अजनबी’ कविता आह है. जहाँ सब अजनबी मात्र रह जाते हैं..‘पहचान’ कविता कवि के व्यक्तिगत भावों की अभिव्यक्ति है. रचनाकार जब दिल्ली में होते हैं तो बिहारी के नाम से जाने जाते हैं और जब बिहार में होते हैं तब दिल्ली वाले समझे जाते है. ऐसी ही उलझी स्थिति को कविता में उकेरा गया है. ‘दृढ़ निश्चय’ कविता में इसकी ताकत को उकेरा गया है. अंतिम प्रणाम’ कविता बताती है कि आखिरी प्रणाम के लिए चाहे जितने भी शब्दों को क्यों न गढ़ लिया जाय लेकिन एक साहित्यकार को अंतिम प्रणाम देने का सबसे अच्छा तरीका उसके विचारों को पढ़ना ही है. रचनाकार के भीतर बराबरी पर आधारित समाज को बनते देखने की बड़ी इच्छा है. वे संघर्ष’ को हारते देखते हैं, तो उन्हें बड़ी पीड़ा होती है. ‘हर जोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है’ को वे जब मद्धिम पड़ते देखते हैं तब कवि को बहुजनों का भविष्य अँधेरे में जाता हुआ दिखाई देता है. ‘घुटन’ कविता में लालसाओं को पूरा करने के लिए भागते हुए लोगों को उकेरा गया है. हर जगह भयानक भागमभाग, मानो आसपास और कोई हो ही न. यही है घुटन, होकर भी न होना.
‘महानगरों की शोभा’ कविता एक ओर महानगरों पर व्यंग्य करती है तो दूसरी ओर झोपड़ियों की दारुण स्थिति को बेहद मार्मिक शब्दों में उकेरती है. गरीब जूठन खाकर पेट पालने के लिए मजबूर हैं. ‘एन जी ओ’ कविता में बदलता दौर याद आता है. ‘ढोंग’ कविता ढोंगी और मक्कार लोगों की पोल खोलती है. ढोंगी व्यक्ति रंगे सियार की भांति होते है. ‘पैसे का खेल’ शीर्षक कविता में गरीबों की चिंता है. क्या चंद कागज के टुकड़ों के बिना किसी का पेट नहीं भर सकता.‘न्याय’ कविता में उस न्याय पर प्रश्न उठाया गया है, जो न्याय न होकर मात्र निर्णय होता है. यह निर्णय बहुत अधिक बार अमीरों के पक्ष में आता है. ऐसे में रचनाकार का प्रश्न है कि अँधा क्या है न्याय, न्याय की देवी या असत्य के पक्ष में झुका उनका तराजू या फिर अन्याय पर मुहर लगाने वाले लोग? कवि ‘टेलीवीजन’ पर भी आक्रोश जताते हैं. यह एक समय में विकास के लिए था, पहले यह सत्य की खोज दिखाता था. आज झूठ की चाशनी में लोगों को हिंसक, आक्रामक बनाता है. जालसाजी परोसी जा रही, जिससे त्याग, प्रेम, आपसी भाई-चारे सब खत्म हो रहे.
‘जगा दो’ कविता जागरण का सन्देश देती है. विषमता, जातीय पीड़ा, भूख की आग से लड़ने के लिए कवि लोगों को जगाते हैं. इस काव्य संग्रह की कविता ‘घास’ अदम्य जिजीविषा के बारे में बताती है. हमारे पुरखे मंडेला, बाबा साहेब, बापू की जिजीविषा भी अदम्य है, जो हर तानाशाह को अपने त्याग और सुविचारों से झुकाती है. ‘जारी है आजादी की असली लड़ाई’ में रचनाकार संविधान के प्रति गहरे भावबोध से भरे हुए हैं. जिस लड़ाई को आजादी के पहले छेड़ा गया था कि साम्राज्यवादी ताकतों के साथ उन लोगों से भी छुटकारा मिल जायेगा, जो मुट्ठी भर होते हुए भी संसाधनों के भारी हिस्से पर कब्ज़ा जमाये हुए बैठे थे. यदि संविधान ने गरीबों को अधिकार नहीं दिए होते तो क्या होता, स्थिति कितनी गंभीर होती. कवि अपनी कविता में वीर तिलका मांझी, पेरियार, बाबा साहेब को याद करते हैं ‘जीतेगा बहुजन अंतिम युद्ध’ कविता में एक बार फिर बहुजन नेताओं को बड़ी शिद्दत से याद किया गया है. ‘सब्बे सत्ता सुखिता होन्तु’ कविता में सभी के सुख की कामना की गयी है. इस दुनियां में किसी भी प्रकार के दास बनाये जाने की प्रथा पूरी तरह से समाप्त होनी चाहिए.
आखिरी कविता ‘जीत अन्ततोगत्वा हमारी होगी’ इसी दृढ़ निश्चय के साथ समाप्त होती है. रचनाकार उस दिन के इन्तजार में है जब दंभ टूटेगा. कवि का संयम इतना अधिक है कि जब दम्भियों का दंभ टूटेगा तब उन्हें आनंद नहीं वरन उन पर तरस आएगा. कुल मिला कर ‘लड़ाई जारी है’ कविता संकलन राजनीति के छल-प्रपंच, पल रहे खून चूषक विचार, अन्याय, अत्याचार, भेदभाव के प्रति आक्रोश व्यक्त करती है और संघर्ष को धार देती हुई, बेहतर दुनियां की उम्मीद जगाती है.

-- डॉ. मधुलिका बेन पटेल
तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय, तिरुवारूर
तमिलनाडु