रेप से कलंकित होता समाज


वर्षो से समाज मे अत्याचारों की मार सहती आ रही महिलाओं पर बलात्कार जैसी चोट ने महिलाओं को ही नही बल्कि पूरे समाज को ही शर्मसार कर के रख दिया है। एक तरफ महिलाएं विभिन्न पदों पर जा कर नाम रौशन कर रही है तो वहीं दूसरी ओर उनपर तथाकथित विकसित होते समाज मे भी बलात्कार कर के उन्हें जिंदा जला दिया जाता है या फिर पुलिस द्वारा अंधेरी रात में परिवार वालों को बंधक बना कर जला दिया जाता है। वही नहीं राजस्थान में भी अमानवीय घटना को अंजाम दिया गया और ऐसे न जाने कितने जघन्य अपराध आए दिन देखने को मिल जा रहा है। जिस देश मे हर 16 मिनट में एक महिला का बलात्कार होता रहा है। उस देश मे अब तो इंसानियत भी सोचती होगी कि कितना बार हमें शर्मशार करोगे? कैसा है हमारा समाज और कानून जहां ऐसा कोई दिन नहीं होता जब किसी लड़की, बच्ची के साथ कोई जघन्य बलात्कार और हत्या ना होती हो। इस सच्चाई को बढ़ी तल्खी के साथ साहित्य एवं सिनेमा में भी बार बार दिखाया जाता है ।

हाल फिलहाल कि रेप की घटनाओं पर गौर करे तो एक बात नई दिख रही है वो ये कि अभी जो भी रेप की घटनाएं हो रहीं है उसमें अत्यधिक में साक्ष्य मिटाने के लिए लड़की को जलाया जा रहा है या उसे मारा पीटा जा रहा है जो कि अपराध को और जघन्य बना रहा है और यह सब निर्भया के बाद से दिख रहा है। इसका कारण कानून में हुए बदलाव को कहा जा सकता है क्योंकि रेपिस्ट बचने के लिए साबुत मिटाने के तौर पर कर रहे है। तो क्या कठोर कानून मात्र से रेप रोकने में भी समस्या है क्योंकि रेप के बाद हत्या भी होने लगी है। बड़ा प्रश्न यह है कि फिर रेप का समाधान क्या हो सकता है? इसका समाधान का अब भी इन्तेजार है।

    वैसे तो हर रोज बलात्कार की समाचार आ ही रही है लेकिन फिर से हाथरस की घटना ने मानव जाति को कलंकित करने का काम किया है। इस घटना ने संपूर्ण देश को आक्रोशित कर दिया है । ऐसा लगता है मानो निर्भया कांड और प्रियंका रेड्डी के बाद एक बार फिर देश की आवाम का गुस्सा अपने बांध तोड़ कर निकल चुका है। दिल्ली के निर्भया कांड के समय में भी देखा गया था कि किस तरह संपूर्ण देश में कांड के खिलाफ लोगों में गुस्सा उफान पर आ गया था। सरकार और व्यवस्था की “कुर्सी” हिलने लगी थी और तब जाकर शासन ने कठोर कानून बनाने की पहल की थी लेकिन उस कानून का हस्र क्या हुआ वो आपके सामने है। आज स्थिति यह है कि बलात्कार के संदर्भ में कठोरतम कानून होने के बावजूद इस तरह के प्रकरणों में कमी नहीं आ रही है । फिर समस्या कहाँ है ? कठोर कानून में क्या कमी है? समाज मे क्या कमी है? अनगिनत प्रश्न समाज के समक्ष मुँह बाए खड़ा है।

रेप होने के कारण में एक भारतीय सिनेमा , वेब सीरीज और यहां तक कि भारत मे कुछ टीवी सीरियल में भी अश्लीलता आसानी से दिखाना को माना जाता है। रेप के लिए सिनेमा रूपी माध्यम को या समाज के किसी खास वर्ग को कोसना या उसका नकारात्मक चित्रण करना नहीं है। क्योंकि आज हम उस दौर से बहुत आगे बढ़ चुके हैं । इंटरनेट क्रांति और स्मार्टफोन की सर्वसुलभता ने पोर्न या वीभत्स यौन-चित्रण को सबके पास आसानी से पहुंचा दिया है। अभी तो इंटरनेट पर एड के नाम पर अनचाहे में भी अश्लीलता पड़ोसी जाने लगी है । इनको इससे मतलब नही है कि इंटरनेट पर छोटे बच्चे पढ़ रहे है और उसी बीच मे एड भी आ जाता है। इंटरनेट भी अब सहज उपलब्ध है। कल तक इसका उपभोक्ता केवल समाज का उच्च मध्य-वर्ग या मध्य-वर्ग ही हो सकता था, लेकिन आज यह समाज के हर वर्ग के लिए सुलभ हो चुका है। सबके हाथ में है और लगभग फ्री है। कीवर्ड लिखने तक की जरूरत नहीं, आप मुंह से बोलकर गूगल को आदेश दे सकते हैं. इसलिए इस परिघटना पर विचार करना किसी खास वर्ग या क्षेत्र के लोगों के बजाय हम सबकी आदिम प्रवृत्तियों को समझने का प्रयास है। तकनीकें और माध्यम बदलते रहते हैं, लेकिन हमारी प्रवृत्तियां कायम रहती हैं या स्वयं को नए माध्यमों के अनुरूप ढाल लेती हैं।

आधुनिक युग में मनोवैज्ञानिकों ने भी अपने अध्ययन में पाया है कि हमारे दिमाग की बनावट इस तरह की है कि बार-बार पढ़े, देखे, सुने या किए जाने वाले कार्यों और बातों का असर हमारी चिंतनधारा पर होता ही है और यह हमारे निर्णयों और कार्यों का स्वरूप भी तय करता है। इसलिए पोर्न या सिनेमा और अन्य डिजिटल माध्यमों से परोसे जाने वाले सॉफ्ट पोर्न का असर हमारे दिमाग पर होता ही है और यह हमें यौन-हिंसा के लिए मानसिक रूप से तैयार और प्रेरित करता है। इसलिए अभिव्यक्ति या रचनात्मकता की नैसर्गिक स्वतंत्रता की आड़ में पंजाबी पॉप गानों से लेकर फिल्मी ‘आइटम सॉन्ग’ और भोजपुरी सहित तमाम भारतीय भाषाओं में परोसे जा रहे स्त्री-विरोधी, यौन-हिंसा को उकसाने वाले और महिलाओं का वस्तुकरण करने वाले गानों की वकालत करने से पहले हमें थोड़ा सोचना होगा।

सवाल सबसे बड़ा यह है कि दिनदहाड़े हो या फिर रात के अंधेरे में, आखिर कोई महिला बच्ची सुरक्षित क्यों नहीं है? कहां है शासन और कानून? और ऐसी घटनाएं इसके बावजूद हो रही है तो ऐसे पत्थर हृदय नेता और अधिकारी किस मुंह से अपने पदों पर बैठे हुए हैं।

           -- नृपेन्द्र अभिषेक नृप
                  छपरा, बिहार
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