चंबल में जयप्रकाश नारायण= महेंद्र कुमार सिंह

   


चंबल में जयप्रकाश नारायण
महेंद्र कुमार सिंह
अक्तूबर 1971 में पटना में जयप्रकाश नारायण से राम सिंह नाम का एक व्यक्ति मिला और उसने उन्हें बताया कि वह मध्य प्रदेश के चंबल इलाके में लकड़ी का ठेकेदार है। वह वहां के डकैतों की समस्या पर और उनके आत्मसमर्पण पर बात करने गया था। उनसे दौ दौर की बात होने के बात उसने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा कि वह राम सिंह नहीं बल्कि माधो सिंह है। यह सुनते ही जेपी चश्मा उतारकर रख देते हैं और उसे जीभर कर देखने के बात कहते हैं कि, चंबल के डाकुओं के आत्मसमर्पण के मामले में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान की सरकारों से बात करने के बाद ही कुछ सार्थक पहल कर सकते हैं। 
    उस समय उत्तर प्रदेश में कमलापति त्रिपाठी, मध्य प्रदेश में श्यामाचरण शुक्ल और राजस्थान में बरकतुल्लाह खां मुख्यमंत्री थे। उन्होंने तीनों मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखने के साथ ही केंद्र सरकार से भी संपर्क किया। इसके साथ ही विनोबा भावे के साथ चंबल में बागियों के लिए काम करने वाले चंबल घाटी शांति समिति के मंत्री महावीर भाई और ग्वालियर के श्री हेमदेव शर्मा को भी तार भेजकर बुलाया। मुख्यमंत्रियों के सकारात्मक उत्तर मिलने के बाद जेपी ने चंबल घाटी शांति मिशन का गठन किया और महावीर भाई और हेमदेव शर्मा को इसका काम सौंपा। इस मिशन में चरण सिंह और लोकमन ने भी महावीर भाई के सहयोगी बने। 
   नवंबर में जेपी अचानक बीमार हो गए। इसके चलते डॉक्टरों ने उन्हें आराम करने के सलाह दी। जेपी तीन महीने आराम करते रहे और सि दौरान मिशन का काम चलता रहा। इस दौरान माधो सिंह ने बागियों को यह समझाने का प्रयास किया कि जेपी इसके लिए किस गंभीरता से लगे हैं और बागियों को भी अपन पूरा सहयोग करना होगा। इस दौरान बांग्लादेश का मुक्ति संग्राम पूरे जोर पर था और भारत अपने अस्तित्व की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ रहा था। 13 दिसंबर को जेपी ने बागियों के नाम एक अपील जारी की। इसमें उन्होंने कहा कि,''आजकल हमारा देश नाजुक दौर से गुजर रहा है। संकट की इस घड़ी में जबकि सारा देश अपनी सुरक्षा और आत्म-सम्मान के लिए प्रयत्नशील है, चंबल घाटी के बागी भाइयों से मेरी अपील है कि वे भी अपना गलत रास्ता छोड़कर देश के साथ सहयोग करें। इस काम में मैं केंद्रीय गृह राज्य मंत्री श्रीकृष्ण चंद पंत, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री श्यामाचरण शुक्ल, कमलापति त्रिपाठी और बरकतुल्ला खां से संपर्क में हूं और इस काम के साथ उनकी पूरी सहानुभूति है।''
  ''बागी भाइयों से मेरी अपील है कि वे अपनी गतिविधियां बंद कर दें और हिम्मत के साथ समाज के सामने आत्मसमर्पण करें।'' 
''बागी भाइयों के परिवार के सदस्यों, उनो रिश्तेदारों, शुभ चिंतकों, विचारशील नागरिकों, और समस्त समाजसेवी भाइयों, बहनों से मेरा नम्र निवेदन है कि वे मेरी इस अपील को बागी भाइयों तक पहुंचाएं और आत्मसमर्पण के लिए उन्हें तैयार करें।''
    इस अपील की हजारों प्रतियां चंबल में बंटवा दी। दुनिया को इस अपील के असर का पहला पता जनवरी 1972 में चला जब हेमदेव शर्मा ने माधो सिंह के एक पत्र पत्र के कुछ अंश अखबार वालों को दिये। जेपी को लिए इस पत्र में माधो सिंह ने कहा था कि हम हथियार डालने को तैयार हैं, क्या समाज हमें वापस तैयार करेगा? 
पटना में केन्द्रीय गृह सचिव श्री गोविन्द नारायण से की जेपी से लंबी चर्चाएं हुईं और ये चर्चाएं आगे महत्वपूर्ण साबित हुईं। इसी दौरान बांग्लादेश की मुक्ति से देश का वातावरण बदला और पूरा देश एक रचनात्मक आत्मविश्वास जागा। सरकारों का रुख बागी समस्या के प्रति और भी सहानुभूतिपूर्ण हो गया। अब वे एक अनोखे प्रयोग में जेपी से सहयोग करने को तैयार थीं। इसी दौरान फरवरी में जेपी के प्रयासों से मान सिंह के पुत्र तहसीलदार सिंह रिहा हुए और उन्होंने पूरी लगन से इस काम में हाथ बंटाया। इस दौरा चुनाव के दौरान मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बदल गए प्रकाश चंद सेठी ने कार्रभार संभाला। 
     इस दौरान मार्च को माधो सिंह, महाभीर भाई, हेमदेव शर्मा और तहसीलदार सिंह को लेकर जेपी के पास दिल्ली गए। माधो सिंहने जेपी से पन्द्रह दिन तक चंबल की घाटी में रहने का आग्रह किया। इस दौरान मोहर सिंह, सरूप सिंह, तिलक सिंह और  कालीचरण आदि के दलों से संपर्क किया। इसके साथ ही माधो सिंह, माखन सिंह को मनाने में सफल हो गया। तीनो ंप्रदेशों की सरकारों, वहां की पुलिस और तथा केंद्र से सार्थक चर्चा हो चुकी थी। दस अप्रैल 1972 को जेपी संसद भवन में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरागांधी से मिले और उन्हें इस प्रगति की पूरी जानकारी दी। 
      इसके बाद दस अप्रैल को जेपी ने प्रेस को जो वक्तव्य जारी किया वह इस प्रकार है, ''पिछले अक्तूबर से मैं चंबल घाटी के डाकू कार्य में लगा हुआ हूं।                              
अपनी बीमारी के दिनों में भी मैं इस कार्य से संपर्क रखे रहा, जबकि डाकुओं या बागियों से मिलने-जुलने का प्रत्यक्ष काम सर्वोदय क्षेत्र के मेरे साथी मुख्यत: श्री महावीर भाई और श्री हेमदेव शर्मा अन्य अनेक कार्यकर्ताओ ं की मदद से करते रहे। पिछले छह महीनों में मैंने इस काम के बारे में सार्वजनिक रूप से बयान नहीं दिया है। अलबत्ता समय-समय पर डाकुओं के नाम कुछ अपीलें मैंने जारी की हैं। लेकिन अब जबकि मैं चंबल घाटी क्षेत्र में मैं रवाना हो रहा हूं, मुझे लगता है कि कुछ शब्द कहूं।
   सबसे पहले तो मैं अपनी यह भावना व्यक्त करना चाहता हूं कि इस तरह के काम के मैं अपने को नितांत अयोग्य पाता हूं। मैं इसके लिए किसी नैतिक अथवा आध्यात्मिक गुण का दावा नहीं करता। मैंने इस समस्या को आर्थिक और सामाजिक दृष्टिकोण से ही देखा है। मेरे विचार मेंअब तक जो सफलता मिली उसके नीचे लिखे तीन कारण हैं।
  इनमें सबसे महत्वपूर्ण कारण तो यह है कि सन् 1960 में हुए विनोबा जी के काम का यह प्रभाव है, जो बराबर अपना काम करता रहा है। उन्होंने उस समय एक छोटा सा बीज बोया था, जो तब से लेकर अब तक डाकुओं के, आम लोगों के, और अगर मैं गलती न करता होऊं तो हुकूमत में काम कर रहे लोगों के दिलों में भी अपना काम करता आ रहा है। चाहे थोड़े ही समय के लिए क्यों न हो, फिर भी विनोबा अमली तौर पर साबित कर सके कि अपराधों के मामलों में काम करने की एक मानवीय और अधिक सभ्य रीति भी है। इसमें संदेह नहीं कि आधुनिक अपराध शास्त्र और दण्ड शास्त्र के क्षतर में पश्चिम के देशों ने सोवियत रूस से इस दृष्टिकोण को पूरे तरह अपनाया है। 
    दूसरे, जिस तरह लोक-विश्रुत मान सिंहजी के पुत्र तहसीलदार सिंह जी की पहल ने सन् 1960 में विनोबा जी को जीवन परिवर्तन का अपना मिशन अपनाने की प्रेरणा दी थी, उसी तरह आज की पीढ़ी के डाकुओं के एक अत्यंत माने हुए नेता माधो सिंह जी के आग्रह के कारण मुझे इस काम में लगना पड़ा है। पिछले अक्टूबर के आरंभ में एक दिन सबेरे-सबेरे पटना के मेरे घर पर माधो सिंह अचानक ही आ पहुंचे और उन्होंने सच्चे दिल से जोर देकर कहा कि विनोबा जी ने इस काम को जहां छोड़ा था, वहां से उसे मैं फिर शुरू कर दूं। जब मैंने उनसे कहा कि वे इस काम के लिए विनोबा जी की मदद और मार्गदर्शन प्राप्त करें, तो वे बोले कि उनके साथी विनोबा जी से मिल चुके है और उन्होंने सलाह दी है कि वे मेरे पास जायें, बाद में पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि उनकी यह बात ठीक थी। मैंने माधो सिंह जी से अनुरोध किया कि मैं वैसे ही काम से बहुत लदा हूं और अपना कुछ बोझ कम करना चाहता हूं, इसलिए वे कोई नया बोझ लादने की बात न करें, पर उन्होंने मेरी एक न सुनी। इसके साथ ही, उन्होंने मुझे बार-बार इस बात का विश्वास दिलाया कि इस पर सवाल कुछ बागियों के आत्मसमर्पण का नहीं है, बल्कि अगतर मैंने इस मामले में पहल की और केन्द्रीय शासन का तथा संबंधित तीनों राज्यों की सरकारों का सहयोग प्राप्त कर सका, तो इससे समूची डाकू समस्या का ही हल निकल सकता है। इस तरह उनके साथ ही इस अनसोची और चकित करने वाली भेंट और चर्चा का नतीजा यह निकला कि आखिर मुझे माधो सिंह जी की बात मान लेनी पड़ी और एक ऐसा नया बोझ उठा लेना पड़ा जिसके लिए मैं अपने को योग्य नहीं मानता। 
  डाकुओं को अपनी मर्जी से आत्मसमर्पण के लिए राजी करने में साथियों को अब तक जो सफलता मिली है, उसका दूसरा महत्वपूर्ण कारण डाकुओं के अपने रुख में हुआ वह परिवर्तन है, जिसकी माधो सिंह जी ने मुझे बतायी थी। इसमें संदेह नहीं कि डाकुओं के रुख में यह जो परिवतत्त्न आया है, इसके लिए कई बातें जिम्मेदार हैं, लेकिन निश्चय ही इनमें एक बात वह भी है, जिसका छोटा सा बीज विनोबा जी ने सन् 1960 में बया था।          


इस काम में अब तक हुई प्रगति का तीसरा कारण, जोकि निश्चय रूप से इन दोंनों कारणों से कम महत्व का नहीं है, यह रहा कि भारत सरकार के गृह मंत्री और उनके अधिकारियों का और मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों और उनके अधिकारियों का इस काम में न केवल सतत सहयोग रहा, बल्कि उन्होंने बड़ी समझदारी का रुख अपनाया। मेरे पास यह मानने के कारण हैं कि इसमें भारत की प्रधानमंत्री का भी पूरा समर्थन उन्हें प्राप्त था। अतएव इसमें मुझे उनकी जो मदद मिली है, और जो प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है, इस अवसर पर मैं उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करना चाहता हूं। 
 इस मामले में झूठी आशाएं पैदा न हों, इस दृष्टि से मैं जोर देकर यह कहना चाहता हूं कि इस क्षेत्र की डाकू समस्या, जिसका अपना एक विशिष्ट इतिहास और स्वरूप रहा है, कुछ सौ डाकुओं के आत्मसमर्पण मात्र से हल होने वाली नहीं है। उनके आत्मसमर्पण से तो एक प्रक्रिया का श्रीगणेश भर होगा, समस्या समाप्त नहीं हो पाएगी। जिन-जिन लोगों ने इस समस्या का अध्ययन किया है और इस पर लिखा है, उनमें से हर एक ने इस बात पर जोर दिया है कि यह सिर्फ कानून और व्यवस्था की समस्या नहीं है, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और आर्थिक समस्या है। अलबत्ता, सभी अपराध एक समय सामाजिक समस्या का रूप लेते हैं, केवल कानून और व्यवस्था की समस्या का नहीं। चंबल घाटी की समस्या विशेष रूप से एक समग्र समस्या है। अतएव जब तक इस आत्मसमर्पण के बाद केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारों के साथ ही सर्वोदय के, समाज सेवा के और स्वैच्छिक सेवा के काम में लगे कार्यकर्ता और उनकी संस्थाएं इस जटिल समस्या के मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, और आर्थिक पहलुओं के नहीं संभालेंगी, तब तक चंबल घाटी की धरती में से डाकुओं के नए-नए दल खड़े होते रहेंगे और इतिहास अपने को दोहराता रहेगा। 1
जेपी के इस वक्तव्य से समझा जा सकता है कि वे सामाजिक समस्याओं विशेषकर चंबल घाटी के डाकुओं की समस्या को लेकर किताना संजीदा थे। जेपी के राजनीतिक सफर से इतर यहा सामाजिक काम उनको इसीलिए महान बनाता है। 
1.चम्बल की बंदूकें गांधी के चरणों में, गांधी शांति प्रतिष्ठान, गांधी पुस्तक घर, राजघाट, नई दिल्ली। सन् 1973