नेता अपने कैलकुलेशन अजी वही गणना या हिसाब करके उसके अनुसार एक पार्टी त्याग कर दूसरी पार्टी में जा रहे हैं। मन लगा तो रह गए वहां। अगर नहीं तो फिर लौट के घर आ रहे हैं बुद्धू की तरह।
आदमी से अधिक महत्वपूर्ण होता है उसका अहम। कहीं कहीं पहचान भी अधिक असर करती है। भाव देना जैसे वाक्यांश को देखें अगर, अपनी पार्टी में किसी को भाव नहीं दिया जा रहा है, उसके महत्व को पहचान नहीं रहे हैं, तो सहज है उसके अहम को चोट लगेगी। अहम को मैं स्वाभिमान से अलग मानता हूं। स्वाभिमान से दो कदम आगे अहम या अहंकार होता है, वह जैसा चलाता है - आदमी वैसा ही नाचता है। कुछ पा लेने की लालच, कहीं कुर्सी हथियाने की दुराशा, पुरानी पार्टी से निराशा, नई पार्टी में स्वयं की पहचान के लिए हटता कुहासा - सारा कुछ पार्टी बदलने या कहें कूद फांद करने को विवश करते हैं।
अब देखिए जहां जिसकी उम्मीद होती है। वहां वह नहीं होता तो खींझ कर खंभा नोचने वाले नेताओं की कमी नहीं है, लेकिन इतने बुजुर्ग या कुछ युवा भी इस बात को क्यों नहीं मानते कि “कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता”। अगर ऐसी मुकम्मल पहचान मिल गई तो क्या बात है? पौ बारह। पांचों उंगलियां घी में और सर कड़ाही में। यह अलग बात है कि ऐसे मौके कहां मिलते हैं? अगर पांचों उंगलियां घी में हैं तो सिर कहीं गिरवी रखा होता है। कुर्सी, पद, सत्ता, पहचान, महत्ता और शॉर्टकट में सब कुछ पा जाने की महत्वाकांक्षा आदमी को अलग करती है और यही कारण है कि दल बदल हो रहे हैं आजकल कुछ अधिक संख्या में।
एक नए नए दल बदले नेता से हमने पूछा “भाई जी आप तो अच्छे खासे थे उस पार्टी में। आपको बढ़िया कर्ताधर्ता बना कर रखा था। आप उस दल रूपी जहाज से कैसे इस जहाज पर कूद पड़े? मतलब पार्टी बदल कर इस दल में आ गए।”
सुकरात सा चेहरा बनाकर अपने अंदाज में उन्होंने कहा “वह डूबता जहाज लग रहा है मुझे, मेरे पिता उस दल में थे। मैं भी था, लेकिन मुझे लगा इस डूबते जहाज में मैं सुरक्षित नहीं हूं इसलिए वहां से इस दल में आ गया।"
मैंने उन्हें खींचा –“कहा तो यह जाता है कि जब जहाज डूबने लगता है तो सबसे पहले चूहे उस जहाज को छोड़कर भाग खड़े होते हैं। तो हम क्या आपको गणेश जी का वाहन मूषक मानें?”
“न। न हम मूषक हैं और न कूद फांद वाले मंडूक हैं। हम तो शेर हैं” कॉलर उठाते हुए कहा उन्होंने।
“हां ज़ू वाला शेर कभी इस चिड़ियाघर में तो कभी उस चिड़ियाघर में है न?”
“आपको तो कुछ समझता ही नहीं है। आप राजनीति क्या जानें? कैसे-कैसे पापड़ बेलने पड़ते हैं, कैसे-कैसे तिकड़म लगाना होता है। कैसे-कैसे चक्कर करने होते हैं। सारा दिमाग का खेल है राजनीति आसान नहीं है।”
“लोग कहते हैं कि राजनीति में हम इसलिए आए हैं कि जनता की और समाज की सेवा करें, लेकिन आपकी बातों में कहीं भी जनता का या जनकल्याण का जिक्र ही नहीं है। जब तक पद नहीं पाएंगे, कल्याण नहीं करेंगे ऐसा क्या? राजनीति में पापड़ बेलना, दिमाग लगाना मुझे तो दिखता नहीं और तो और जो चीज नहीं है, उसे कैसे लगाएंगे?”
“महाशय आप नहीं समझोगे। कागज काले करना, किसी की टांग खींचना आसान है। हम जनता की भलाई के लिए ही तो दल बदल रहे हैं।”
इनसे कौन माथा फोड़े सोचकर मैंने कहा “एक राज्य जहां चुनाव से पहले काफी लोग वहां की सत्ता पार्टी से आपकी नई (दल बदलने के बाद) वाली पार्टी में आ गए थे और जब वही सत्ता पार्टी फिर से सत्ता में आ गई तो लौट रहे हैं। घर वापसी कर रहे हैं। उनका कहना है कि आपकी पार्टी में कोई किसी को नहीं पूछता। कोई इंपॉर्टेंस नहीं है, कोई भाव नहीं देता, बस काठ के पुतले बनना होता है केवल दस बारह लोग ही अपना भाव बढ़ाए हुए हैं।”
काफी देर बाद उन्होंने कहा “मुझे एक जरूरी काम याद आ गया। मैं चलता हूं।” कहते हुए बड़े बड़े कदम लेते हुए वाकआउट करते विपक्ष की तरह भाग खड़े हुए।
जीवन में गणना या हिसाब का अपना महत्व है। हर आदमी की नीयत किसी साहूकार जैसी हो रही है। इसमें फायदा है या नहीं, उसमें तो शायद नुकसान ही होगा। यही सोच तीन पाँच करते हुए जी रहा है आदमी। राजनीतिज्ञों की बात ही निराली है। उनका तीन पाँच, नौ दो ग्यारह, या पौ बारह का गणित ही गजब का है।
डॉ0 टी महादेव राव
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