कभी-कभी
मैं फाड़ दिया करती थी
कुछ कविताएं
लिखकर ,
शायद किसी अंजाने भय से
न जानें क्यों ,
या फिर,,
छिपाकर रख दिया करती थी
मन की डायरी में,
और,,, लिखकर भूल जाती थी ,
पर तुम,,ज़िद्दी से
दिख ही जाते थे
अधमिटे शब्दों में भी,,
कागज़ की फटी कतरनों में भी,,
मन में छिपे भावों में भी,,
और
ढूंढ निकालते थे
मुझको भी
उन छिपे-बचे शब्दों के पीछे से ,
इस तरह
हम फिर पुनर्जीवित हो जाते थे
वापस उसी प्रेम के साथ
किसी नई-नवेली कविता में ,
बताओ, सच्ची बोल रही हूं न !!
नमिता गुप्ता "मनसी"
मेरठ, उत्तर प्रदेश