नहीं थी औकात कुछ कर गुजरने की,
लेकिन सत्य साबित करने झूठ को,
फिट बैठाने खुद को,
आ जाते हो,
और आते रहे हो,
क्या सोचा है अपनी अमीरी
दांव पर लगा कर
वंचितों में बांटने की?
क्या कभी ऐसा सोचा है,
या जालिम बनकर
मजलूमों को सिर्फ नोचा है,
कब, कहां, किस रूप में
और कैसे, किसको लूटना है,
दिमाग में सिर्फ यहीं चला सकते हो,
मौका मिलते ही अनिवार्यतः
कमीशन खा सकते हो,
अब खुद सोचकर
खुद की आकलन जरूर करना,
तभी किसी अच्छी बातों का
विरोध करना,
तुम्हारे विरोधी होने के बाद भी
किसी ने भरपूर सहारा दिया तुम्हें,
जाकर विधान जरूर पढ़ना,
और जाति का भूत न उतरे तो कहना,
तथा विचारना कहां औकात नहीं थी।
राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ छग