यह दिसंबर की ठंड है,
अनोखी मगर अनोखा ही ढंग है,
कोहरे की धुंध में अजीब हैं चेहरे,
अलाव तापते सुबह-सुबह पहर में,
यह दिसंबर की ठंड है,
गर्म हैं चाय के लगे प्याले मुंह से
मिली अधरों में सुकुन माकूल अहम हैं,
दूर से आकर बुआरी चलाकर, सुबह
कई मजदूर रूकते जरूर है, चाय बनते
देखते खिलते जरुर हैं, चाय-पोहे के टपरे
पर हर रोज जमती हैं लोगों की भीड़ देखते
देखते आदत में आकर हाजरी लगाते हम हैं
यह दिसंबर की ठंड हैं, इसमें तन की गर्म
कपड़ों से जंग हैं, हर गांव-कस्बों और शहर का
इस कड़कड़ाती ठंड में हां, यही आलम है,
यह दिसंबर की ठंड है हां, यह दिसंबर की ठंड है !
- मदन वर्मा " माणिक "
इंदौर, मध्यप्रदेश